-मनोज कुमार
हम सबको हिन्दी दिवस के नाम पर याद है सितम्बर माह की चौदह तारीख. एक दिन का हिन्दी दिवस और एक पखवाड़े का हिन्दी सप्ताह. यह दिन और सप्ताह का अर्थ है आगे पाठ और पीछे सपाट. यानि दिन और सप्ताह गुजरा नहीं कि हम भूल गये हिन्दी और हिन्दी को लेकर किये गये विलाप को. देखेंगे, आने दें सितम्बर को. सब मिलकर फिर हिन्दी के लिये रो लेंगे. सरकार को कोसेंगे कि वह हिन्दी के लिये कुछ नहीं कर रही है. ऐसे हिन्दीप्रेमी एक दोस्त से मैंने अपनी जानकारी बढ़ाने की गरज से पूछा- यार, ये तो बता कि हिन्दी दिवस और हिन्दी सप्ताह तो सितम्बर में मनाया जाता है लेकिन ये विश्व हिन्दी दिवस कब आता है? कुछ देर के लिये तो वो मेरा मुंह ताकता रहा और फिर बोला- तेरी आदत ही खराब है, जाने कहां से क्या सुन आता है और बोलता रहता है. उसने आगे जोड़ दिया हिन्दी यानि सितम्बर और हिन्दी यानि राष्ट्र्र, ये विश्व हिन्दी दिवस बकवास है. ऐसा कुछ नहीं होता है. कुछ और ज्ञानियों से जानने की गरज से पूछा तो कुछ को पता था और एक सज्जन तो ऐसे निकले, जिन्होंने न केवल विश्व हिन्दी दिवस के बारे में बताया बल्कि हिन्दी की दुर्दशा पर भी अपना दुख जाहिर किया. मुझे लगा विश्व हिन्दी दिवस के बहाने ही सही, एक बार हिन्दी के बारे में आत्मवलोकन कर ही लेना चाहिये.
भारत में आज से सैंतीस बरस पहले सन् 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पहल पर हुआ था. वे चाहती थीं कि हिन्दी विश्व मंच पर स्थापित हो सके. इसके लिये इस प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में तीन प्रस्ताव पास किये गये थे जिसमें से एक था संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित करना. नागपुर से लेकर जोहान्सबर्ग सम्मेलन पर सम्मेलन होते रहे और आज तक हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता नहीं मिल सकी. शायद हिन्दी से कम बोली जाने वाली अरबी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता जरूर मिल गयी. अरबी को मान्यता मिल गयी, इसका दुख कम होना चाहिये. दुख तो इस बात का होना चाहिये कि सैंतीस साल में जाने कितनी पीढिय़ां जवान हो गई, केन्द्र में सरकारें आती-जाती रहीं लेकिन हिन्दी को विश्व मंच में स्थापित करने में हम नाकामयाब ही रहे.
यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि हिन्दी मजबूरी की नहीं, मजबूती की भाषा है। दुर्भाग्य की बात है कि विश्व में ऐसा कोई राष्ट्र नहीं है जहां उनकी स्वयं की राष्ट्रभाषा न हो पर केवल भारत ही एक ऐेसा राष्ट्र है जहां राष्ट्रभाषा के लिये अभी भी चुनौती और संघर्ष की भाषा बोली जा रही है. राष्ट्रभाषा का होना महज कोई भावनात्मक पहलू या आवश्यकता नहीं है। आज देश की बिखरती एकता की स्थापना के लिये भी राष्ट्रभाषा को कड़ाई से लागू करना आवश्यक हो गया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मातृभाषा की अवमानना करने वालों की ओर इशारा करते हुये कहा था, ‘‘क्या वे लोग जो अपनी मातृभाषा का अपमान करते हैं, कभी इस देश का भला कर सकते हैं ?
गांधीजी का यह कथन उन लोगों के मुंह पर तमाचा है जो खाते तो हिन्दी का है और गाते गुण अंग्रेजी का. पत्रकारिता हो, सिनेमा हो या शिक्षा, हिन्दी सभी की जरूरत बन चुका है. हाल ही में खेलों की खबरें दिखाने वाले एक चैनल को भी हिन्दी का मुंह करना पड़ा क्योंकि उन्हें पता है कि हिन्दी के बिना गुजारा नहीं. हर साल अरबों का कारोबार करने वाले हमारे भारतीय सिनेमाई कारोबारी जब भी मौका मिलता है हिन्दी की जगह, अंग्रेजी में ही बोलते दिखते हैं. पत्र-पत्रिकाओं का सबसे ज्यादा प्रसार हिन्दी भाषी पाठकों के बीच है किन्तु अंग्रेजी का तडक़ा लगाये बिना उनका जी मचलाता रहता है. शिक्षा के लिये तो ऐसा लगता है कि बिना कान्वेंट स्कूल में पढ़े, बच्चों का उद्धार होना ही नहीं है. इस मामले में व्यवसाय करने वालों ने जरूर अपनी जरूरत के अनुरूप हिन्दी की तरफ खुद को कर लिया है किन्तु मॉल की संस्कृति ने यहां भी हिन्दी को पीछे धकेल दिया है. हिन्दी हमारी धडक़न है, हमारी पहचान है और हिन्दी के बिना हम मृत समान हैं क्योंकि अपनी बोली और भाषा ही आखिरकार जिंदा होने का प्रमाण होती है.
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