सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

sarkar ka din

२९ नवम्बर २०१० के लिये विशेष

हमारे समय के रॉबिनहुड - शिवराजसिंह चौहान

-मनोज कुमार-

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान इन दिनों वनवासी सम्मान यात्रा पर निकले हुए हैं। यात्रा का तीसरा दौर समाप्त हो चुका है और आने वाले उन्तीस नवम्बर तक पूरे प्रदेश में उनकी यात्रा पूरी हो जाए। वनवासी सम्मान यात्रा के दौरान उन्होंने शिद्दत के साथ परतंत्रता के दौर के रॉबिनहुड यानि जननायक टंट्या मामा को याद किया। उनकी यादों को स्थायी बनाने के लिये प्रयास कर रहे हैं। टंट्या मामा से लेकर आज तक का समय बदल चुका है। रॉबिनहुड यानि जननायक हर दौर में हुए हैं। कुछ को याद किया गया तो कुछ भुला दिये गये। टंट्या मामा उन लोगों में हैं जिन्हें भुला देने का अर्थ अपनी परम्परा को भुला देना है किन्तु बदलते समय में हमारे बीच जो जननायक हुए उन्हें भुला देना भी उचित नहीं होगा। अब सवाल यह है कि हमारे समय का कौन है जननायक? किसे हम रॉबिनहुड मानें और इसे मानने के पीछे का मापदंड क्या हो? सवाल कठिन है किन्तु जवाब बहुत मुश्किल नहीं। खासतौर पर उस दौर में सवाल का जवाब ढूंढ़ना मुश्किल नहीं है जब देश के सबसे बड़े और ह्दय प्रदेश मध्यप्रदेश पुर्नगठित हो गया हो और उसके पुनर्गठन के दस बरस गुजर चुके हों। बेशक हमारे समय के जननायक शिवराजसिंह चौहान हैं और वे इसलिये नहीं कि वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं बल्कि इसलिये कि जो काम परतंत्रता काल में टंट्या मामा ने किया था वही काम आज के दौर में शिवराज मामा कर रहे हैं। तंत्र को पारदर्शी बनाकर, भूमाफियाओं से कब्जे छुड़ाकर और गरीबों, महिलाओं और बच्चों को उनके अधिकार दिलाकर। अपने पांच बरस के कार्यकाल में शिवराजसिंह ने सरकार और आम आदमी के बीच की दूरी खत्म कर जननायक बन गये हैं। यह भी संयोग है कि वनवासी सम्मान यात्रा की शुरूआत टंट्या मामा को स्मरण कर वह शिवराजसिंह कर रहे हैं जिन्हें हमारे समय में हमारे समाज ने बच्चों के मामा होने का सम्मान दिया है।

सन् दो हजार में मध्यप्रदेश का विभाजन हुआ और उससे अलग कर छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया। छत्तीसगढ़ नवनिर्मित राज्य बना तो मध्यप्रदेश विभाजित होकर पुर्नगठित हो गया। हालांकि इस मायने में पुर्नगठन शब्द उचित नहीं है क्योंकि छत्तीसगढ़ के अलग हो जाने के बाद भी मध्यप्रदेश की भौगोलिक आकार ही छोटा हुआ और कोई बदलाव नहीं आया। सन् उन्नीस सौ छप्पन में नवगठित मध्यप्रदेश और चौंतीस बरस बाद विभाजित मध्यप्रदेश में तीन साल बाद दो हजार तीन में पहला विधानसभा चुनाव हुआ। इस चुनाव में दस साल से सत्तासीन कांग्रेस को बाहर कर भारतीय जनता पार्टी ने बहुमत के साथ प्रदेश की कमान सम्हाल ली। छत्तीसगढ़ में भी गैरकांग्रेसी सरकार ने सत्ता सम्हाल ली थी। अविभाजित मध्यप्रदेश में भी गैरकांग्रेसी सरकारें रही हैं किन्तु इस बार गैरकांग्रेसी दल का सरकार बनाने का अर्थ कई मायने में भिन्न था। यह बदलाव का संकेत था तो एक नये युग में प्रवेश का संदेश भी। पुराना अनुभव यह बताता रहा है कि अविभाजित मध्यप्रदेश में गैरकांग्रेसी सरकारों का जीवन लम्बा नहीं रहा है। इस बार भी यही आशंका थी लेकिन समय गुजरने के साथ आशंका निर्मूल साबित हुई। पहले पांच बरस भाजपा सरकार ने सफलतापूर्वक राज किया तो दूसरी बार दो हजार आठ के चुनाव में कब्जा कायम रहा। राजनीतिक विश्लेषकों को यह बदलाव चौंका गया। अनेक तरह के विश्लेषण हुए और इस बदलाव के पीछे कई कारक बताये और बनाये गये।

छत्तीसगढ़ नवगठित राज्य है इसलिये कहा जा सकता है कि यह बदलाव वर्षाें से उपेक्षित रहने का परिणाम है किन्तु मध्यप्रदेश के साथ यह बात लागू नहीं होती है। इस बरस मध्यप्रदेश अपनी उम्र के चौंवन साल पूरे कर चुका है और भाजपा सरकार आठ बरस। गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान दो पारियों में किन्तु लगातार पांच वर्ष मुख्यमंत्री रह कर मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा चुके हैं। मध्यप्रदेश में किसी गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री के लगातार पांच वर्ष पूरे करने को सहजता से नहीं लिया जा सकता है बल्कि इसके पीछे के कारणों की तलाश करेंगे तो यह बात सहज रूप से सामने आएगी कि वे हमारे समय के रॉबिनहुड हैं और जिन्हें सही मायने में समाज का जननायक कहा जा सकता है। अवसर विशेष पर ऐसे विशेषण दिये जाने की परम्परा है किन्तु यह शायद पहला अवसर होगा जब जननायक शब्द उनके लिये विशेषण न रहकर एक सच्चाई है। आइए इस जननायक शब्द की पड़ताल कर लें।

दो हजार तीन में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो सहज रूप से चुनाव का बागडोर सम्हालने वाली तत्कालीन भाजपा नेत्री उमा भारती को मुख्यमंत्री बनाया गया। एक साल बीतते बीतते कानूनी बाध्यता के चलते उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और उनके स्थान पर भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बनाया गया। संयोग से भाजपा के आंतरिक कलह के चलते गौर को भी मुख्यमंत्री पद का त्याग करना पड़ा। उमा के बाद गौर की रवानगी के बाद सर्वमान्य नेता के रूप में शिवराजसिंह चौहान का चयन मुख्यमंत्री के रूप में किया गया। उनकी छाप एक सौम्य एवं मृदुभाषी राजनेता की रही है। वे लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं और प्रदेश की राजनीति में उनका दखल कम रहा है। उन्हें जब मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गयी तो यह माना गया कि उमा और गौर की तरह थोड़े समय में उनकी विदाई हो जाएगी। समय समय पर कयास लगाये गये और उनके विरोधियों ने विवाद की स्थिति भी उत्पन्न की किन्तु सारे अनुमान और विरोध भोथरे पड़ गये और दिन-पर-दिन शिवराजसिंह चौहान एक कामयाब और सफल जननायक के रूप में स्थापित हो गये।

मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह ने उन्नतीस नवम्बर दो हजार पांच को शपथ ली तब सुनहरे भविष्य संभावनाएं कम और आशंका अधिक थी। आरंभिक दिन भी कुछ ऐसे गुजरे। एक किसान परिवार के बेटे और और एक सांसद के रूप में पांव पांव वाले भइया के नाम पर ख्याति पाने वाले शिवराजसिंह की सौम्यता एवं सादगी पर अफसरशाही के हावी हो जाने की आशंका बनी हुई थी किन्तु यह खबर नहीं थी कि जनता का प्रतिनिधि जनता के हक में काम करने के लिये बेलगाम अफसरशाही को कस भी सकता है और ठीक भी कर सकता है। आहिस्ता आहिस्ता दिन गुजरने लगे और शिवराजसिंह सरकार की कार्यशैली से तंत्र का परिचय होने लगा। अफसरशाही की आवाक और आम आदमी खुश। एक साल पूरा होते न होते शिवराजसिंह आम आदमी की उम्मीदों पर खरा उतरने लगे थे। लाडली लक्ष्मी योजना लागू कर उन्होंने मातृशक्ति का वि·ाास जीत लिया था। लिंगभेद को कम करने में उनके प्रयास एक ओर जहां सार्थक बना वहीं मां-बाप के चेहरे से चिंता की लकीरें मिटने लगीं। कल तक की अभिशप्त बेटियां आज हर परिवार के लिये लाडली लक्ष्मी बन गयी हैं। राजनीति में स्त्रियों की पचास फीसदी भागीदारी सुनिश्चित कर उन्होंने जता दिया कि उनकी कथनी और करनी एक है। उन्होंने इस बात का दावा नहीं किया कि वे भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देंगे लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ पर चोट करने में वे पीछे नहीं रहे और इसी मंशा के तहत उन्होंने कह दिया कि महिला एवं बच्चों की योजनाओं में गड़बड़ी बर्दाश्त नहीं होगी। सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित कर भ्रष्टाचार पर अंकुश पाने की उनकी पहल को देशव्यापी पहचान मिली।

अपने पहले एक साल की शुरूआत के साथ उनकी छवि जननायक की बन गयी। यह छवि प्रदेश के आखिरी छोर तक तब पहुंची जब उन्होंने मुख्यमंत्री की चौपाल कार्यक्रम का आगाज किया। हर वर्ग और हर हुनर के लिये उन्होंने उन गुमनाम लोगों के लिये मुख्यमंत्री निवास का दरवाजा खोल दिया जो कभी आम आदमी के लिये तिलस्म बना हुआ था। पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने भी आम आदमी को जोड़ने की गरज से दरबार लगाते रहे हैं किन्तु उन अभियानों में मुख्यमंत्री के राजा होने की धमक होती थी किन्तु शिवराजसिंह के चौपाल में आम आदमी के शिवराजसिंह के साथ होने का अहसास था। आजादी के बाद से गांव की सुरक्षा में जुटे कोटवार को मुख्यमंत्री, उनके निवास तो दूर की बात, राजधानी भोपाल आना भी मयस्सर नहीं था लेकिन मुख्यमंत्री की पाती पर न केवल उनका सपना सच हुआ बल्कि मुख्यमंत्री के साथ बैठकर भोजन कर उन्होंने पहली दफा शायद स्वतंत्र होने का अर्थ भी समझा होगा। यही अनुभव अन्नदाता कहलाने वाले किसान, भूमिपुत्र आदिवासी, गृहलक्ष्मी मातृशक्ति, आर्थिक क्षमता बढ़ाने वाले कारोबारी, खेल के मैदान में जौहर दिखाने वाले खिलाड़ी और अनजाने, गुमनाम सिद्वहस्त कारीगरों को भी मिला।

मुख्यमंत्री की चौपाल मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के विरोधियों के लिये एक सस्ती लोकप्रियता थी किन्तु जमीनी स्तर पर सरकार की जो पकड़ बनी, उसका अंजाम दो हजार आठ के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला जब भारतीय जनता पार्टी दुबारा उसी ठाठ से प्रदेश की सत्ता में लौट आयी। विनम्र मृदुभाषी शिवराजसिंह के लिये यह जीत उनकी जीत नहीं थी, जनता जीत थी, भाजपा की जीत थी। वे एक आम कार्यकर्ता के भांति पहले की तरह खुद को बनाये रखा। मुख्यमंत्री बन जाने के बाद आमतौर पर लुक बदल जाता है किन्तु शिवराजसिंह मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन अपना लुक नहीं बदला। उसी पाजामा-कुर्ते में बने रहे। अफसरशाही ने कोशिशें की होंगी लेकिन वे नाकायाब हो गये। अफसरशाही मुख्यमंत्री को संवारना जानती है और शिवराजसिंह चौहान जनता की नब्ज पहचानते हैं। जनता को अपने बीच का अपने जैसा नेता चाहिए और शिवराजसिंह वैसे ही बने रहे जैसा कि वे अपने आरंभिक दिनों में थे। यही कारण है कि वे पांच बरस में मुख्यमंत्री न रहकर जननायक बन गये।

शिवराजसिंह के जननायक बनने की कहानी टंट्या मामा की कहानी से अलग नहीं है। कोई बात अलग है तो समयकाल की। टंट्या मामा परतंत्रता के दौर के जननायक थे तो शिवराजसिंह हमारे समय के जननायक हैं। टंट्या मामा के लिये दुश्मनों से लड़ना आसान नहीं था तो मुश्किल भी नहीं क्योंकि दुश्मनों के लिये निर्मम हो जाने में कोई तकलीफ नहीं होती है किन्तु शिवराजसिंह के लिये यह मुश्किल का दौर है। मुश्किल इसलिये कि उन्हें दुश्मनों से नहीं बल्कि अपने ही उन लोगों से लड़ना है जो अपने स्वार्थ के लिये अपने ही लोगों के दुश्मन बन गये हैं। मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह ने यह चुनौती भी मंजूर की। एक आम आदमी का सपना होता है कि उसका अपना घर बने और प्रदेश में भूमाफियाओं का जाल ऐसा था कि चौवन बरस में किसी सरकार ने उन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं की। शिवराजसिंह ने भूमाफियाओं पर नकेल डालने की न केवल हिम्मत दिखायी और कार्यवाही की। राज्य के अनेक हिस्सों में हजारों लोगों ने राहत की सांस ली। जिन भूमाफियाओं के खिलाफ कार्यवाही शुरू हुई उन्हें यह बात रास नहीं आयी लेकिन वे बेबस बने हुए हैं।

मुख्यमंत्री शिवराजसिंह की यह कार्यवाही टंट्या मामा की उस कार्यवाही की तरह है जिसमें टंट्या मामा ने अंग्रेजों के हाथों से छीन कर गरीबों में बांट दिया। कुछ कुछ शिवराजसिंह चौहान भी इसी तरह की कार्यवाही कर रहे हैं। भूमाफियाओं के हाथों से गैरकानूनी ढंग से हथियायी गयी सम्पत्ति को वाजिब हकदारों को दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह की नजर अफसरशाही पर भी है जो अकूत धनसंपदा के मालिक हैं। ऐसे कई अफसरों के खिलाफ कार्यवाही की। सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों पर नियंत्रण पाने के मकसद से दुनिया में पहली दफा लोकसेवा गारंटी अधिनियिम मध्यप्रदेश सरकार ने पारित किया। अपनी जिम्मेदारी से कोताही बरतने वाले अफसर और कर्मचारी हर आदमी के लिये जवाबदार होंगे। आने वाले दिनों में जनप्रतिधियों को भी इस कानून की जद में लाने की कोशिश है। एक तरफ सूचना का अधिकार और दूसरी तरफ लोकसेवा गारंटी अधिनियिम ने तंत्र को पारदर्शी बना दिया है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के