सोमवार, 11 अगस्त 2025

दिग्विजय-सिंधिया प्रसंग



 इस खूबसूरत पल को थाम लीजिए 

प्रो. मनोज कुमार

    राजनीति, समाज और आसपास जब अंधेरा घटाघोप हो रहा हो और ऐसे में कहीं भी एक लौ दिखाई दे तो उस पल को थाम लीजिए. यह लौ अंधेरे को चीर नहीं सकता है लेकिन उम्मीद की किरण के मानिंद हमें भरोसा दिलाता है कि अभी सबकुछ खराब नहीं हुआ है. अभी उम्मीद बाकि है. राजनीति के पटल पर देखते हैं तो यह अंधेरा घनघोर है. ऐसे में एक सार्वजनिक सभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया मंच से उतर कर दिग्विजयसिंह का हाथ थाम कर मंच पर ले जाते हैं. यह महज संयोग नहीं है बल्कि उन दिनों के लौट जाने का संकेत है कि राजनीति में शुचिता शेष है. शेष है एक-दूसरे को सम्मान देने की नियत. लेकिन आनंद लीजिए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया वक्त गंवाए और कोई दूसरा मनोभाव बनाये. मुस्कराते हुए मंच से उतरते हैं. आसपास खड़े लोगों का अभिवादन करते हैं और पूरे अधिकार के साथ दिग्विजयसिंह को मंच पर साथ ले जाते हैं.

यह पल यकिनन स्मृतिकोष में सदैव के लिए अंकित हो जाने वाला है. इस बात पर क्या कोई विमत हो सकता है कि राजनीति में दिग्विजयसिंह वरिष्ठ हैं और ज्योतिरादित्य उनसे कम. मध्यप्रदेश की राजनीति में दिग्विजयसिंह अपने संकल्पों को पूर्ण करने में कभी हिचके नहीं, पीछे हटे नहीं। और ज्योतिरादित्य अधिकार के साथ उन्हें मंच पर ले जाते हैं तो उनका संकल्प टूट जाता है. स्मरण रहे कि कांग्रेस की एक सभा में उन्होंने संकल्प लिया था कि वे मंच पर नहीं बैठेंगे। तब से वे कांग्रेस के मंच से किनारा कर दर्शक दीर्घा में बैठने लगे. ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेसजनों ने उनका मान-मनोव्वल नहीं किया होगा. उन्हें सम्मान देने में पीछे रहे होंगे. सबने अपने हिस्से से दिग्विजयसिंह को मनाने का प्रयास किया होगा लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे. फिर ऐसा क्या हुआ कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के आग्रह को टाल नहीं सके? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने आग्रह तो किया ही, अधिकार के साथ उन्हें अपने साथ हाथ पकड़ कर मंच तक ले आए. 

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा का विषय बन गया. जैसा कि होता आया है राजनीति के मंच पर जब ऐसा कोई प्रसंग आता है तो उसके पीछे की राजनीति तलाश की जाने लगती है. अनेक बार ऐसा होता भी है लेकिन वर्तमान प्रसंग इस बात का संकेत देता है कि ज्योतिरादित्य की यह पहल अपने वरिष्ठ को सम्मान देने की है ना कि राजनीतिक विवशता. इस घटनाक्रम के अगले दिन अखबारों में दिग्विजयसिंह का बयान छपता है कि ज्योतिरादित्य उनके बेटे के समान है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की पहल और दिग्विजयसिंंह का बयान के नीचे या पीछे कोई राजनीति नहीं देखना चाहिए. यूं कि ये महज एक परिवार सा है. सनातनी संस्कृति को समझने और मानने वाले यह समझ सकते हैं कि जब घर के बुर्जुग नाराज होते हैं, रूठ जाते हैं तो यह जिम्मेदारी बच्चों की होती है कि वे उन्हें अधिकारपूर्वक साथ लेकर चलें. उन्हें मनाने या उनसे माफी मांगने की कतई जरूरत नहीं होती है और ना ही वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसा करें. ऐसा किया भी जाता है तो यह एक औपचारिक रिश्ते में बदल जाता है. उल्टे गुस्सा कीजिए, नाराज हो जाइए और अधिकार जताइए, आपस की दूरी खत्म हो जाती है. मनोविज्ञान भी यही कहता है और भारतीय संस्कृति में भी यही रिवाज है. 

राजनीतिक गलियारे में इस सुखद प्रसंग के बाद चर्चा चल पड़ी, कयास लगाये जाने लगे कि यह सब संयोग नहीं बल्कि राजनीतिक पहल है. यह भी बिना किसी तथ्य, तर्क के यह बात गढ दी गई कि सिंधिया कांग्रेस वापसी चाहते हैं इसलिए यह पहल उन्होंंने की. कुछ ऐसी ही मीमांसा दिग्विजय सिंह के बयान को लेकर की जाने लगी. लिखने और बोलने वालों का आधार क्या है, शायद कोई नहीं जानता. अगर सबने देखा, जाना और समझा तो यह कि यह राजनीति के शह-मात का खेल नहीं बल्कि आपसी शिष्टाचार, सद्भाव और सौम्यता का प्रसंग है. मुश्किल यह है कि समाज का हर वर्ग इस बात से प्रसन्न नहीं होता है कि आज कुछ सुखद हो रहा है तो उसे आगे बढ़ायें ना कि क्लेश की जमीन को विस्तार दें. जब राजनीति में शुचिता की बात होती है तब हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं. अनेक पुराने प्रसंग और घटनाओं को बताते हैं कि देखो, वो समय कैसा था. और आज जब उन पुराने प्रसंगों, घटनाओं का किंचचित मात्र बेहतर हो रहा है तो हम उनके बीच हुई कुछ कड़ुवाहट को सामने ले आते हैं. क्या हम थोड़ी देर के लिए इस मकबूल वक्त में खो नहीं सकते हैं. माना कि राजनेताओं की राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर होती है तो सवाल यह है कि वे सारी मेधा, सारी मेहनत समाज को आगे बढ़ाने के लिए ही तो कर रहे हैं. निश्वित रूप से वे व्यक्तिगत छवि को निखारना चाहते हैं और वे ताकतवर होंगे, तभी वे समाज हित में, राष्ट्रहित में, राज्य में कुछ ठोस कर पाएंगे. मैं राजनीति का ककहरा नहीं जानता हूं लेकिन यह भी जानता हूं कि राजनीति है, यहां कुछ भी संभव है. और यह कोई नया नहीं है. भविष्य में क्या होगा, कैसे होगा, कोई नहीं जानता लेकिन बर्फ पिघल रही है तो पिघल जाने दीजिए. इस घटाघोप अंधेरे में इस बाती को प्रज्जवलित होने दीजिए. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

दिग्विजय-सिंधिया प्रसंग

 इस खूबसूरत पल को थाम लीजिए  प्रो. मनोज कुमार     राजनीति, समाज और आसपास जब अंधेरा घटाघोप हो रहा हो और ऐसे में कहीं भी एक लौ दिखाई दे तो उस ...