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अविश्वास की आंखें


मनोज कुमार
अविश्वास की आंखें? जब मेरे दोस्त ने कहा तो सहसा मुझे यकिन ही नहीं हुआ। उल्टे मैं उससे सवाल करने लगा कि भाई झूठ के पांव नहीं होते हैं, यह तो सुना था। अविश्वास की आंखें, यह कौन सी नयी आफत है। इस पर दोस्त ने तपाक से कहा कि यह विकास की देन है। दूसरा सवाल और भी चौंकाने वाला था। समझ नहीं आ रहा था कि विकास की देन अविश्वास की आंखें? खैर, दोस्त तो अपनी पहेली छोडक़र चला गया था लेकिन एक पत्रकार एवं लेखक होने से भी ज्यादा एक बड़ी होती बिटिया के पापा की जिम्मेदारी ने इस पहेली के प्रति जिज्ञासा बढ़ा दी। मैं अपने आसपास तलाश करता रहा कि अचानक एक खबर ने मेरी चूलें हिला दी। दैनिक अखबार के किसी पन्नेद पर खबर छपी थी कि शहर के एक बड़े शॉपिंग मॉल में चोरी करते हुये दो युवक को कैमरे ने पकड़ा। 
शॉपिंग मॉल, चोरी, कैमरा और जब्ती। अब मुझे अविश्वास की आंखों का अर्थ समझ आने लगा। दोस्त ने जिसे विकास की देन कहा था वह अविश्वास की आंखों और कोई नहीं कैमरा ही था। विकास के परवान चढ़ते नये नये टेक्रालॉजी के बारे में लिखना अच्छा लगता है। लिखता भी हूं लेकिन बड़े  शॉपिंग मॉल में प्रवेश करते ही मैं एक मामूली आदमी हो जाता हूं। किसी ब्रांडेड स्टोर में प्रवेश करते ही डर सा लगने लगता है। सच कहूं तो अपनी औकात समझ आने लगती है। तिस पर कैमरे की लगातार घूरती आंखें। डर सा लगता है कि जाने अगले पल क्या हो। ऐसे में कई बार तो शॉपिंग मॉल में जाने का प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया जाता है। 
सच तो यह है कि मैं ठहरा निपट देहाती आदमी। जेब में दो पांच सौ रुपये आये तो खुद को शहंशाह समझ बैठता हूं। मेरी इस गफलत को मेरे मोहल्ले का परचून वाला हमेशा बनाये रखता है। वह मुझे कभी इस बात का अहसास ही नहीं होने देता कि मैं फक्कड़ किस्म का लगभग कंगाल हूं और मेरे हाथों में जो दो-पांच सौ रुपये हैं, उसकी कोई बखत नहीं। अपने भीतर ही भ्रम पाले मैं परचून की दुकान में पहुंचता हूं। यहां अविश्वास की आंख नहीं आयी है। दुकानदार से सौदा-सुलह किया और दो शिकायतें भी ठोंक दी। कुछ सुख-दुख की बातें भी कर ली और उधार अलग कर आया। लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी के बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल में ऐसी सुविधा कहां। उसके पास एक ही रिवाज है। माल देखो, पसंद आया तो बैग में डालो, पैसे दो, बिल लो और घर चलते बनो। मोहल्ले के परचून की दुकानदार की तरह न तो शिकायत सुनने का मौका, न बतियाने का कोई वक्त। उधार की बातें तो करो ही नहीं। और हां, परचून की दुकान की तरह कुछ भी उठाकर टेस्ट नहीं कर सकते। टेस्ट किया और बिल पेस्ट हुआ। हो सकता है कि इस टेस्ट के चक्कर में अविश्वास की आंखों में आप कैद हो जायें और कहीं से सायरन बजा और आप धर लिये जायें।
विकास की देन अविश्वास की आंखों का विस्तार शॉपिंग मॉल से आपके हमारे घरों तक आ गया है। अविश्वास इतना बढ़ गया है कि अब हम छिपे कैमरे से एक-दूसरे की निगरानी करने लगे हैं। कहने तो हम इसे सुरक्षा के लिये लगाये हुये कैमरा कहते हैं लेकिन सच तो यह है कि हम सब घोर अविश्वास के शिकार हैं। सच तो यह है कि हमारा अपने आप से विश्वास उठ गया है। कभी हमारे बुर्जुग कहते थे कि कई बार आंखों देखी भी सच नहीं हुआ करती थी लेकिन अविश्वास की आंखें बन चुका यह यंत्र जो दिखाता है, वही सच है। यह सच इतना बड़ा और पक्का है कि लगता है कि मैं वापस अपने गांव की तरफ लौट जाऊं। परचून की दुकान में खड़ा होकर गप्पें हांकू और घर पर बेफिक्र ी के साथ लौट सकूं लेकिन अब लौटना भी मुश्किल लग रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह से आपसी विश्वास कहीं गुम हो गया है।

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