Media on Parliamentary system. ----------------------------------- Need journalist- ----------------------------------- Bilingual ( Hindi & English) - Around 5 year experience (1) - Blow 1-2 year experience/Fresher/ trainees (3) - Graphics designer (1) for new media ventures. At New Delhi. Apply@- connectneerajgupta@gmail.com
शनिवार, 19 अगस्त 2017
तत्काल आवेदन करें
Media on Parliamentary system. ----------------------------------- Need journalist- ----------------------------------- Bilingual ( Hindi & English) - Around 5 year experience (1) - Blow 1-2 year experience/Fresher/ trainees (3) - Graphics designer (1) for new media ventures. At New Delhi. Apply@- connectneerajgupta@gmail.com
सोमवार, 14 अगस्त 2017
मुफ्तखोरी से मुक्ति का संकल्प लेने का वक्त
मनोज कुमार
हर बार की तरह एक बार फिर हम स्वाधीनता पर्व मनाने जा रहे हैं. हर बार की तरह हम सबकी जुबान पर शिकायत होगी कि आजादी के 70 सालों के बाद भी हम विकास नहीं कर पाये. कुछ लोगों की शिकायतों का दौर यह होता है कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का शासन था. यह समझ पाना मुश्किल है कि क्या इन 70 सालों में भारत ने विकास नहीं किया? क्या विश्व मंच पर भारत की उपस्थिति नहीं दिखती है? क्या भारत ने स्वयं को महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में सफलता प्राप्त नहीं की है? इन सवालों का जवाब हां में होगा तो फिर विकास का पैमाना क्या हो? सन् 1947 से लेकर 2017 तक का जब हम आंकलन करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा कोई सेक्टर नहीं है जहां भारत ने कामयाबी के झंडे नहीं फहराया हो लेकिन भारतीय मानसिकता हमेशा से शिकायत की रही है और हम तकियाकलाम की तरह विकास नहीं होने की बात को कहते रहे हैं. यह शिकायत की मानसिकता हमारी ऐसी बन चुकी है कि हम अपने देश पर अभिमान कर नहीं पाते हैं. हम अपने देश की खूबियों को भी लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं. दरअसल, भारत जैसे महादेश में लोगों ने अपने अपने टापू सरीखे घर और मन बना लिए हैं, जहां वे स्वयं को कैद रखते हैं. वे बाहर की दुनिया से कटे हुए हैं और उन्हें लगता है कि बाकि दुनिया विकास के आसमां छू रही है और भारत को अभी बहुत कुछ करना बाकी है.
इस शिकायतनामा को आप खारिज नहीं कर सकते हैं क्योंकि विकास सतत प्रक्रिया है और जितना हुआ या हो रहा है, उससे आगे की उम्मीद बनी रहती है. इस स्वाधीनता पर्व पर हमें नागरिक जिम्मेदारी के साथ आगे आना होगा. अपने आपसे यह वायदा करना होगा कि देश के विकास के लिए पहले वह अपने आसपास का विकास करेंगे. इसके लिए सबसे पहली और जरूरी शर्त है कि हम स्वयं को आत्मनिर्भर बनायें. शिकायतों की बात करें तो हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि इन 70 सालों में हम पराश्रित रहे हैं. हमारी निर्भरता हर बात पर सरकार पर रही है. हम उम्मीद करते हैं कि हमारी हर जरूरत सरकार पूरा करेगी. फिर वह बुनियादी जरूरतें यथा सडक़, पानी, बिजली, स्वास्थ्य और रोजगार दिलाने का काम सरकार का है. मुसीबत टूटने पर सरकार को कोसने में हम पीछे नहीं हटेंगे.
लेकिन क्या कभी हमने अपने अपने स्तर पर सोचा है कि इस देश के प्रति, भारत की माटी के प्रति हमारा अपना भी कोई दायित्व है? कोई कर्तव्य है? शायद नहीं. हमने तो केवल और केवल अधिकारों की बात की है. हमारी इस कमजोरी को राजनीतिक दलों ने बखूबी भांप लिया है और यही कारण है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में ऐसे वायदे किए जाते हैं, जिसे पूरा करने का अर्थ नागरिकों को निकम्मा बनाना है. बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुए हैं. लगभग दो दशक से लोकतांत्रिक और चुनी हुई सरकारों ने आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बजाय उनकी निजी जरूरतों को पूरा करने में अपना ध्यान लगा दिया है. रोजगार के अवसर उत्पन्न करना सरकार का काम है लेकिन लगभग मुफ्त की कीमत में खाद्यान्न उपलब्ध कराना सरकार का काम नहीें है लेकिन सरकारें ऐसा कर रही हैं. बच्चे के पैदा होने से लेकर उसकी शादी-ब्याह तक की जिम्मेदारी सरकार ने ओढ़ ली है. यह काम सरकार का नहीं है. सरकार का काम है कि समाज को बेहतर शिक्षा, रोजगार के बेपनाह अवसर, अच्छी सडक़ें, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था और अपराधमुक्त समाज की संरचना करना है तो यह सारे काम पीछे छूटकर अन्नप्रासन्न संस्कार से लेकर तीर्थदर्शन तक की जवाबदारी सरकार सम्हाल रही है.
राजनीतिक दलों ने वोटबैंक पक्का करने के लिए स्वयं को समाज की बुनियादी ढांचा दुरूस्त करने से खुद को दूर कर लोकलुभावन की योजनाओं को अमल में लाने की पहल की है. आम आदमी को लगता है कि सरकार उसके लिए चिंतित है लेकिन सच तो इसके खिलाफ है क्योंकि हमारी दैनंदिनी जरूरतों के लिए हमें स्वयं को मेहनत करना चाहिए तो हमें वह सब करने की जरूरत नहीं है. राजनीतिक दलों की इस मेहरबानी से समाज की समरसता टूट रही है. इसी समाज के एक बड़े वर्ग को राहत देने की बेवजह कोशिशों से एक दूसरे वर्ग में निराशा उत्पन्न हो रही है. इस स्थिति के लिए वोटबैंक पकाऊ राजनीतिक दल जवाबदार हो सकते हैं लेकिन इसके लिए आम आदमी में पनपता लालच पहले जवाबदार है.
केन्द्र की मोदी सरकार ने जब सब्सिडी खत्म करने की कड़ी पहल की तो लोगों को शिकायत हो गई लेकिन इसकी बड़ी जरूरत है. उच्च या निम्र आय वर्ग के व्यक्ति के लिए रोजगार के अधिकतम अवसर उत्पन्न करना सरकार का काम है लेकिन सुविधाओं की पूरी कीमत चुकाना नागरिक दायित्व है. ऐसे में मोदी सरकार से शिकायत क्यों? होना तो यह चाहिए कि मोदी सरकार पहले चरण में अपने दल के शासित राज्यों में नियम लागू कर दे कि इस तरह के लोकलुभावन योजनाओं का कोई लाभ नहीं दिया जाएगा. इसके स्थान पर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जाएंगे और हर हाथ को अधिकतम काम दिए जाएं जिससे वह आर्थिक रूप से सक्षम हो. इससे ना केवल सरकार पर आश्रित रहने का भाव खत्म होगा बल्कि हर आदमी के भीतर अपने देश को लेकर स्वाभिमान जागेगा. क्योंकि सच यह है कि मेहनत की कमाई ही हर आदमी के भीतर उसके सम्मान को जागृत करती है.
स्वाधीनता पर्व के इस पावन पर्व पर हमें संकल्प लेना होगा कि चुनाव के समय लोक-लुभावन घोषणाओं के फेर में हम सब नहीं आएंगे. बल्कि जो राजनीतिक दल ऐसा करेगा, उसका बॉयकाट करेंगे क्योंकि सरकारों का काम बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का है ना कि आम आदमी की निजी जरूरतों को पूरा कर निकम्मा बनाने का. जिस दिन हम इस मुफ्तखोरी से स्वयं को मुक्त कर लेंगे, आप यकीन रखिए आजादी का सही अर्थों में हम आनंद उठा पाएंगे. कल तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे, आज मुफ्तखोरी ने हमारी आजादी छीन ली है.
शनिवार, 22 जुलाई 2017
मंगलवार, 18 जुलाई 2017
भरोसे का वज़न करता समाज
मनोज कुमार
इन दिनों भरोसा तराजू पर है. उसका सौदा-सुलह हो रहा है. तराजू पर रखकर उसका वजन नापा जा रहा है. भरोस कम है या ज्यादा, इस पर विमर्श चल रहा है. यह सच है कि तराजू का काम है तौलना और उसके पलड़े पर जो भी रखोगे, वह तौल कर बता देगा लेकिन तराजू के पलड़े पर रखी चीज का मोल क्या होगा, यह आपको तय करना है. अब सवाल यह है कि क्या सभी चीजों को तराजू पर तौलने के लिए रखा जा सकता है? क्या भावनाओं का कोई मोल होता है? क्या आप मन की बात को तराजू पर तौल कर बता सकते हैं? शायद नहीं. इनका ना तो कोई मोल होता है और ना ही कोई तौल. तराजू पर रखने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है. भावना, विचार और इससे आगे विश्वास. यह सभी चीजें शाश्वत है. इनका कोई मोल नहीं है. कोई तोल नहीं है. इन सबका अस्तित्व है या नहीं है. यह कम या ज्यादा भी नहीं हो सकता है. भावना किसी के प्रति आपकी अच्छी या बुरी हो सकती है लेकिन कम या ज्यादा कैसे होगी? विचार आपके सकरात्मक हो सकते हैं किन्तु कम या ज्यादा वाले विचार कैसे होंगे. ऐसा ही एक शाश्चत शब्द है भरोसा. आप किसी व्यक्ति पर आपको भरोसा होगा तो पूर्ण होगा और नहीं होगा तो शून्य होगा. किसी पर आप भरोसा करते भी नहीं हैं और कहते हैं कि उस पर मेरा भरोसा कम हो गया? जब भरोसा ही नहीं रहा तो कम या ज्यादा का प्रश्न कहां से उत्पन्न होता है? भरोसा या तो होगा या नहीं होगा और होगा तो पूरा होगा और नहीं होगा तो शून्य के स्तर पर होगा.
इन दिनों समाज में पत्रकारिता की विश्वसनीयता चर्चा में है. आमतौर पर पत्रकारिता अथवा मीडिया के लिए टिप्पणी की जाती है कि अब उसकी विश्वसनीयता घट गई है. इस वाक्य को संजीदा होकर समझने की कोशिश करेंगे तो आपको समझ आएगा कि मीडिया पर अविश्वास करते हुए भी कहा जा रहा है कि भरोसा घटा है, समाप्त नहीं हुआ है. दरअसल, मीडिया पर समाज का विश्वास कभी खत्म नहीं होता है क्योंकि समाज के चौथे स्तंभ की मान्यता प्राप्त इस संस्था की पहली जिम्मेदारी सामाजिक सरोकार की होती है. सत्ता, शासन और अदालत तक आम आदमी की तकलीफ को ले जाना और अवगत कराना मीडिया की जवाबदारी है. जब मीडिया अपनी जवाबदारी से पीछे नहीं हटता है तो समाज का उस पर भरोसा घट नहीं सकता है. हां, मीडिया पर समाज का भरोसा समाप्त हो सकता है. शून्य के स्तर पर जा सकता है, वह तब जब मीडिया अपनी जवाबदारी को भूल जाए. मीडिया पर समाज के भरोसे को किसी तराजू में नहीं तौल सकते हैं क्योंकि भरोसे का कोई मोल नहीं है. भरोसा अनमोल होता है.
इस समय हम सोशल मीडिया के भरोसे बेपनाह अपने विचार जाहिर कर रहे हैं. अभी सोशल मीडिया के एक साथी ने अपनी बात शेयर की कि लेखकों को पीआर करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे एकाग्रता भंग होती है. इस बात में बहुत ज्यादा दम नहीं है क्योंकि जब आप लेखक होते हैं तो आपको सिर्फ वही सूझता है, वही दिखता है और वही लिखते हैं जो आपके मन को विचलित करती हैं. आपका लिखा किसी के भरोसे को बढ़ाता होगा तो किसी के भरोसे को तोड़ता भी होगा लेकिन यह अलग बात है. इस महादेश में अपनी बात पहुंचाने के लिए पीआर करना जरूरी है और इससे बचना मुश्किल सा है. हालांकि इसका समाधान भी है कि आप अपनी सहूलियत और जरूरत के मुताबिक पीआर कर सकते हैं. यहां तो पीआर को तराजू पर तौला जा सकता है और कीमत के स्थान पर इस बात का आंकलन कर सकते हैं कि कब और कितना पीआर कैसे और कितना लाभदायी होगा लेकिन लेखन में जो बात होगी, वह भरोसे की होगी. इसे आप तराजू पर नहीं तौल सकते हैं.
अक्सर साथियों से बात होती है तब वह भी भरोसे के शाश्वत सत्य की अनदेखी कर जाते हैं. मीडिया के बड़े-बड़े मंचों पर दिग्गज पत्रकार भी इस बात को भूल जाते हैं कि भरोस शाश्वत सत्य है और जो शाश्वत है, उसे पाया जा सकता है या खोया जा सकता है. खोकर अपने पास नहीं रखा जा सकता और ना ही पाकर उसे खोने का स्वांग किया जा सकता है. भरोसा टूटने का अर्थ रिश्तों पर पूर्णविराम लगना है और भरोसा पाने का अर्थ रिश्तों और गहराई को नापना है. भावना, विचार और भरोसा अमूर्त हैं. इसका कोई मोल नहीं. यह एक तरह से पानी की तरह है जो रहेगा आपके साथ और टूटा तो भांप बनकर आसमान में विलीन हो जाएगा. यकीन मानिए भरोसा बने रहने के लिए या टूटने के लिए. आपका चाल, चरित्र और व्यवहार पर निर्भर करता है कि आप भरोसे के लायक हैं या नहीं लेकिन आप पर कम या ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है. भरोसा अपने आपमें पूर्ण है, उसे तराजू में तौलने की जरूरत नहीं है. ( फोटो साभार गूगल )
शुक्रवार, 23 जून 2017
एक नदी का उल्लास से भर जाना
-अनामिका
मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी मां स्वरूपा नर्मदा नदी उल्लास से भर गई होगी। यह स्वाभाविक भी है। मां अपने बेटों से क्या चाहती है? अपनों से दुलार और दुलार में जब पूरा समाज सेवा के लिए खड़ा हो जाए तो मां नर्मदा का पुलकित होना, उल्लास से भर जाना सहज और स्वाभाविक है। दुनिया में पहली बार किसी नदी को प्रदूषित होने से पहले बचाने का उपक्रम किया गया। कहने को तो इस दिशा में सरकार ने पहल की लेकिन सरकार के साथ जनमानस ने नर्मदा सेवा यात्रा को एक आंदोलन का स्वरूप दे दिया। चारों ओर से गूंज उठने लगी कि मां नर्मदा की सेवा का संकल्प लिया है। उसे प्रदूषित नहीं होने देंगे। यह अपने आपमें अंचभित कर देने वाला आयोजन था जो भारतीय समाज की जीवनशैली को एक नया स्वरूप देता है। एक नई पहचान मिलती है कि कैसे हम अपने जीवन के अनिवार्य तत्वों को बचा सकते हैं। स्मरण हो आता है कि हमारे ही देश भारत में किसी राज्य सरकार ने नदी का सौदा-सुलह कर लिया था और हम मध्यप्रदेशवासी किसी कीमत पर ऐसा नहीं कर सकते हैं। नमामी नर्मदा सेवा यात्रा इसका जीवंत प्रमाण है।
भारतीय संस्$कृति में जीवन के लिए पांच तत्वों को माना गया है जिसमें जल एक तत्व है। इसलिए जल के बिना जीवन की कल्पना करना डरावना सा है। इसी के चलते हमारे पुरखों ने जल संरक्षण की दिशा में जो अनुपम कार्य किए हैं, वह हमारे लिए उदाहरण के रूप में मौजूद हैं लेकिन हमने समय के साथ नदी-तालाबों के संरक्षण के बजाय दोहन करने पर जोर दिया है। आज यही कारण है कि दुनिया भर में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। अब हम जाग रहे हैं लेकिन अब सम्हलने में एक सदी का वक्त लग जाएगा, इस बात में भी कोई संदेह नहीं। इस कठिन समय में जनचेतना जागृत करनेे के लिए मध्यप्रदेश में नमामि देवी नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा-2016 एक सुखद संकेत है। निश्चित रूप से हम आज कोशिश करेंगे और इस कोशिश को हमारी नई पीढ़ी आगे बढ़ाने आएगी, यह उम्मीद की जानी चाहिए।
नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अमरकटंक से होता है। नर्मदा नदी 16 जिले और 51 विकासखण्ड से होती हुई 1077 किलोमीटर का मार्ग तय करती है। नर्मदा एक नदी मात्र नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति है। इसलिए हम नमामि देवी नर्मदे-नर्मदा कहकर पुकारते हैं। समय के साथ मां नर्मदा का हमने दोहन किया, उसके संरक्षण की दिशा में हम अचेत रहे और आज मां नर्मदा का आंचल आहिस्ता-आहिस्ता सिकुड़ता चला जा रहा है और हालात यही रहे तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि आने वाले समय में मां नर्मदा केवल इतिहास के पन्नों पर रह जाए। इस चुनौती से निपटने के लिए नमामि देवी नर्मदे, नर्मदा सेवा यात्रा आरंभ किया गया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा नदी संरक्षण अभियान है, जिसमें समाज की भागीदारी सुनिश्चित की गई थी। 144 दिनों तक निरंतर इस यात्रा के जरिये जन-समुदाय को नर्मदा नदी के संरक्षण की जरूरत और वानस्पतिक आच्छादन, साफ-सफाई, मिट्टी एवं जल-संरक्षण, प्रदूषण की रोकथाम आदि के बारे में जागरूक करने की सार्थक कोशिश की गई।
मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्र नर्मदा सेवा यात्रा के बारे में कहते हैं कि-‘आज जब पूरे विश्व में पर्यावरण की बात हो रही है तब मुख्यमंत्री श्री चौहान का यह मानना एक सामयिक चिंतन ही है कि मध्यप्रदेश की नर्मदा मैया को पर्यावरणीय संकटों से उबारना बहुत आवश्यक है। गत दशकों में निरंतर वन कम होने से नर्मदा मैया की धार भी प्रभावित हुई है। जिस नदी ने हमें जल, विद्युत, कृषि, उद्यानिकी की सौगात दी है, उसे हम प्रदूषित करने में पीछे नहीं रहे। यह एक तरह का मनुष्य का अपराधिक कृत्य माना जाएगा कि हमारी नदियाँ लगातार प्रदूषित होती गई हैं। अब वह समय आ गया है जब पुरानी त्रुटियों के लिए पश्चाताप करते हुए नदियों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए वातावरण बनाया जाए और मिलकर कार्य किया जाए। नर्मदा तट के पास स्थित गांव में स्वच्छ शौचालय बनेंगे, नगरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की व्यवस्था होगी, घाटों पर पूजन कुण्ड, मुक्ति धाम और महिलाओं के चेंजिंग रूम भी बनेंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि यात्रा के दौरान दोनो तटों पर एक-एक किलोमीटर तक फलदार, छायादार पौधे लगाए जाएंगे। इसकी शुरूआत हो चुकी है। स्वच्छता, जैविक खेती, नशामुक्ति और पर्यावरण संरक्षण के संयुक्त अभियान के रूप में यह यात्रा हमारे सामने है। समाज और सरकार के सामूहिक संकल्प से नर्मदा की पवित्रता का संरक्षण अवश्य सफल होगा।’
नर्मदा सेवा यात्रा का उद्देश्य टिकाऊ एवं पर्यावरण हितैषी कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये जन-जागृति, प्रदूषण के विभिन्न कारकों की पहचान और रोकथाम, जल-भरण क्षेत्र में जल-संग्रहण के लिये जन-जागरूकता, नदी की पारिस्थितिकी में सुधार के लिये गतिविधियों का चिन्हांकन और उनके क्रियान्वयन में स्थानीय जन-समुदाय की जिम्मेदारी तय करना, मिट्टी के कटाव को रोकने के लिये पौधे लगाना आदि है।
ज्ञात रहे कि नर्मदा नदी देश की प्राचीनतम नदियों में से है, जिसका पौराणिक महत्व भी गंगा नदी के समान माना जाता है। नर्मदा अनूपपुर जिले के अमरकंटक की पहाडिय़ों से निकलकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर करीब 1310 किलोमीटर का प्रवाह-पथ तय कर गुजरात के भरूच के आगे खम्भात की खाड़ी में विलीन हो जाती है। मध्यप्रदेश में नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र अमरकंटक (जिला अनूपपुर) से सोण्डवा (जिला अलीराजपुर) तक 1077 किलोमीटर है, जो नर्मदा की कुल लम्बाई का 82.24 प्रतिशत है।
यही नहीं, नर्मदा अपनी सहायक नदियों सहित प्रदेश के बहुत बड़े क्षेत्र में सिंचाई और पेयजल का बारहमासी स्रोत है। नदी का कृषि, पर्यटन और उद्योगों के विकास में अति महत्वपूर्ण योगदान है। इसके तटीय क्षेत्रों में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें धान, गन्ना, दाल, तिलहन, आलू, गेहूँ, कपास आदि हैं। नर्मदा तट पर ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पर्यटन-स्थल हैं, जो देश-प्रदेश, विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। नर्मदा नदी का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक रूप से काफी महत्व है। नमामि देवी नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा-2016 का संदेश केवल नर्मदा नदी के संरक्षण के लिए नहीं है अपितु देशभर की नदियों को बचाने और संवारने की पहल है। मध्यप्रदेश से उठी यह आवाज कल देश भर के लिए होगी और पूरी दुनिया मध्यप्रदेश के इस अतुलनीय प्रयास में सहभागी होगी, यह उम्मीद की जानी चाहिए।
गुरुवार, 15 जून 2017
रविवार, 4 जून 2017
जिम्मेदारी का घड़ा और स्वच्छता की पहल
मनोज कुमार
गर्मी की तपन बढऩे के साथ ही अनुपम मिश्र की याद आ गयी. उनके लिखे को एक बार फिर पढऩे का मन किया. उनको पढ़ते हुए मन में बार बार यह खयाल आता कि वे कितनी दूर की सोचते थे. एक हम हैं कि कल की भी सोच पाने में समर्थ नहीं है. तालाब आज भी खरे हैं, को पढ़ते हुए लगता है कि जिस राजधानी भोपाल में मैं रहता हूं, वह तो ताल और तलैया की नगरी है. इससे छलकता पानी बरबस हमें सम्मोहित कर लेता है लेकिन 25-30 किलोमीटर दूर चले जाने पर वही भयावह सूखा दिखता है. गर्मी की तपन के साथ ही सबसे पहले गले को चाहिए ठंडा पानी लेकिन जब मैंने पानी बचाया ही नहीं तो मुझे पानी मिलेगा कहां से? यह सोचते हुए मन घबरा जाता है. सोचता हूं कि मेरे जैसे और भी लोग होंगे. प्यासे और पसीने से तरबतर. ऐसेे में मुझे सहसा लाल कपड़ों में लिपटे घड़ों की याद आ जाती है. दूर से ही अपनी ओर बुलाती है. हर घड़ा कहता है आओ, अपनी प्यास बुझाओ. मैं बरबस उसकी तरफ खींचा चला जाता हूं. घड़े के भीतर से पानी का दो बूंद गले से उतरते ही जैसे मन खिल उठता है.
ऐसा करते समय एक सवाल मन में उठता है. सवाल है कि घड़ा तो तपती दोपहरी में भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है लेकिन मैं अपनी जिम्मेदारी से क्यों बच रहा हूं. माना की जल का संकट है लेकिन इतना तो कर ही सकता हूं कि राहगीरों के लिए दो घड़े पानी रख दूं. जिम्मेदारी का घड़ा रखने का खयाल मन में सहज भाव से आता है. साथ में यह भी खयाल आता है कि मैं तो जिम्मेदारी का घड़ा उठाने के लिए तैयार हूं. औरों को भी इसके लिए प्रेरित करूंगा. जिम्मेदारी का यह घड़ा न केवल राहगीर की प्यास ही नहीं मिटाएगा बल्कि वह कई समस्याओं का समाधान करेगा. यह तो सच है कि प्यास लगेगी तो पानी पीना ही पड़ेगा. यह पानी उस घड़े का ठंडा पानी हो या और किसी स्रोत से. जब और किसी स्रोत की बात करते हैं तो एक ही विकल्प दिखता है बाजार का पानी. बाजार का पानी का मतलब पाउच या बोतलबंद पानी. दो रुपये का पाउच का पानी और 15 रुपये के बोतलबंद पानी के विकल्प में किसी के सामने दो रुपये का पाउच ही सस्ता सौदा साबित होता है. एक गिलास पानी के लिए 15 रुपये जेब से ढीला करना गंवारा नहीं और फिर उसे साथ लेकर चलने की मुसीबत अलग से. सो दो रुपये का पाउच लिया. हलक में उसके भीतर का पानी उतारा और मर्जी जहां फेंका और आगे निकल गए.
राहगीर को रास्ते में जिम्मेदारी का जल से भरा घड़ा मिल जाए तो उसे विकल्प की तरफ भागना नहीं होगा. अंजुलियों में पानी भरकर न केवल पियेगा बल्कि हथेलियों में उलझी पानी की बूंदों से वह चेहरे को भी ठंडक दे पाएगा. क्या पाउच या बोतलबंद पानी में वह कर पाएगा? शायद नहीं. इसके इतर जिम्मेदारी का घड़ा नहीं होगा तो राहगीर के भीतर बाजार का भाव आएगा. वह इस गुमान में होगा कि मोल चुकता कर पानी खरीदा है तो वह मर्जी से खर्च करेगा. यानि पानी बचाने की भावना तो उसके भीतर आएगी नहीं और बेपरवाह अलग हो जाएगा. अपनी इसी बेपरवाही में वह पानी का पाउच उपयोग करने के बाद यूं ही सडक़ पर फेंक कर चलता बनेगा. इस प्लास्टिक के पाउच से होने वाले नुकसान का वह अंदाज भी नहीं पाता है क्योंकि उसने जिम्मेदारी का घड़ा उठाया ही नहीं है. उसके भीतर पानी बचाने की भावना पैदा करनी है और जिम्मेदार बनाना है तो पुरखोंं के जमाने से चले आ रहे प्याउ की परम्परा को जिंदा करना होगा. यह सच है कि यह परम्परा अभी खत्म नहीं हुई है लेकिन सहज और सुविधा के बाजार ने इसे छीन लेने के लिए जाल जरूर फैला दिया है.
प्याउ की इस संस्कारवान परम्परा को आगे बढ़ाने का यह बेहतर अवसर है. स्कूलों से बच्चों की छुट्टियां लग चुकी है या लगने वाली है. उनके पास भी टाइमपास के लिए कोई काम चाहिए तो सो उन्हें एक-एक घड़ा पानी भरने का काम सौंप दीजिए. शर्त यही है कि इसमें उनका साथ आपको भी देना होगा. बच्चों को जब आप जिम्मेदारी का घड़ा उठाना सिखा रहे होंगे तब आप उनके भीतर एक संस्कार का श्रीगणेश करते हैं. यही नहीं, पानी के साथ पर्यावरण स्वच्छता का पाठ भी आप उन्हें पढ़ाते हैं. टेलीविजन और मोबाइल से इतर भी एक दुनिया है जहां जिम्मेदारी के घडक़े के साथ आप बच्चों को प्रवेश दिला सकते हैं. यकिन मानिये उनके भीतर संस्कार का यह बीज आने वाले सालों साल तक एक एक बच्चे के भीतर अनुपम मिश्र को जिंदा रखेगा क्योंकि जिम्मेदारी के इस घड़े में अनुपम छाप जो होगी.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
कैंपस कॉरिडोर
एमसीयू को मिले कुलाध्यक्ष सी.पी. राधाकृष्णन देश के 15वें उपराष्ट्रपति होंगे और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्य...
-
-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे। किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आस...
-
मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का र...
-
-मनोज कुमार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रित माध्यमों का व्यवसायिकरण. इस बात में अब कोई दो राय नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या मुद्रि...