मंगलवार, 4 नवंबर 2025

जमीन लड़ाई और रणनीति से राजनीति का भेद

संदर्भ प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी 
और प्रशांत किशोर 

प्रो. मनोज कुमार

साल 2014 में जनआंदोलन से अरविंद केजरीवाल जैसे नेता का अभ्युदय हुआ और इसी क्रम में 2025 में प्रशांत किशोर भी बिहार में एक जननेता के रूप में स्वयं को स्थापित करने के प्रयास में जुटे हुए हैं. प्रशांत किशोर  कितना कामयाब हो पाते हैं या नहीं, यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन याद किया जाना चाहिए प्रफुल्ल कुमार महंत को जो छात्र राजनीति से असम की बागडोर सम्हाली थी. निश्चित रूप से नयी पीढ़ी को याद भी नहीं होगा कि कौन प्रफुल्ल कुमार महंत. बिहार विधानसभा चुनाव और प्रशांत किशोर के बहाने प्रफुल्ल कुमार महंत को याद करना जरूरी हो जाता है. याद तो ममता बेनर्जी को भी रखा जाना चाहिए जिन्होंने भारतीय राजनीति में एक इतिहास रच दिया. प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी और प्रशांत किशोर में फर्क इतना है कि वे जमीन लड़ाई लड़ कर राजनेता बने हैं और प्रशांत किशोर रणनीति से राजनीति में आए हैं.  

प्रफुल्ल कुमार महंत असम आंदोलन के नेता थे.  और असम गण परिषद (एजीपी) के सह-संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष थे. महंत ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष भी हैं, जिसने 1979 से 1985 तक असम आंदोलन का नेतृत्व किया था। अगस्त 2005 में, असम गण परिषद (अगप) में उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई। इसलिए, उन्होंने 15 सितंबर 2005 को एक नई राजनीतिक पार्टी, असम गण परिषद (प्रगतिशील) का गठन किया। छात्र जीवन के दौरान ही वे राजनीति में सक्रिय हो गए और 1979 में उन्हें राज्य के एक प्रभावशाली संगठन, अखिल असम छात्र संघ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसी वर्ष महंत ने बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया जो 1985 तक चला। महंत के नेतृत्व में इस आंदोलन ने उन्हें एक छात्र संगठन के नेता से एक प्रभावशाली राजनेता बना दिया। अक्टूबर 1985 में असम गण परिषद के गठन में उनकी प्रमुख भूमिका थी और वे पार्टी के पहले अध्यक्ष चुने गए।

1985 से 1990 तक और फिर 1996 से 2001 तक असम के 11वें मुख्यमंत्री  रहे महंत पहली बार 1985 में नौगांव विधानसभा क्षेत्र से चुने गए थे। महंत अगली बार 1991 में बरहामपुर विधानसभा क्षेत्र से चुने गए। उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार रमेश चंद्र फुकन को 17333 मतों से हराया। उन्होंने 1996, 2001, 2006, 2011 और 2016 में बरहामपुर का प्रतिनिधित्व किया । 4 सितम्बर 2010 को उन्हें पुन: सर्वसम्मति से असम विधान सभा में विपक्ष का नेता चुना गया । 21 अक्टूबर 2013 को, पूर्वोत्तर क्षेत्र के ग्यारह राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने क्षेत्र के लोगों के हितों की रक्षा के लिए एक नए राजनीतिक मोर्चे, उत्तर-पूर्वी क्षेत्रीय राजनीतिक मोर्चा के गठन हेतु बैठक की। महंत को इस मोर्चे का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया।  2014 के लोकसभा चुनावों में कोई भी सीट न मिलने के बाद 14 जुलाई 2014 को उन्होंने असम गण परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । 

महंत, मुख्यमंत्री बने तब देश के सबसे कम उम्र के व्यक्ति बने। हालाँकि, उनका पहला प्रशासन भ्रष्टाचार के आरोपों और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम (राज्य में एक उग्रवादी अलगाववादी समूह) से जुड़ी बढ़ती हिंसा की समस्याओं से घिरा रहा। 1990 में नई दिल्ली के अधिकारियों ने एजीपी सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य का प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में ले लिया । 1991 में पार्टी में विभाजन और अपने पहले प्रशासन में इसके प्रदर्शन से मतदाताओं के असंतोष के कारण 1991 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा।

1996 के राज्य विधानसभा चुनावों में एजीपी के पुनरुत्थान के बाद, महंत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने । उनका यह कार्यकाल बेहद विवादास्पद रहा, खासकर एक उग्रवाद-विरोधी रणनीति के खुलासे के बाद, जो कथित तौर पर महंत के निर्देशन में थी। जून 1997 में उल्फा ने महंत पर हमला किया, जिसके बाद पुलिस ने अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण कर चुके उल्फा कार्यकर्ताओं को सक्रिय उग्रवादियों के परिवार के सदस्यों की हत्या करने के लिए मजबूर किया। बाद में एक आधिकारिक आयोग ने इन हत्याओं की जाँच की और 2007 में यह निष्कर्ष निकाला कि महंत इस नीति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार थे। अपने दूसरे प्रशासन के दौरान, महंत पर धोखाधड़ी वाले ऋण पत्रों से जुड़े एक भ्रष्टाचार घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया गया और असम के राज्यपाल के हस्तक्षेप के कारण ही वे अभियोजन से बच पाए। इसके बाद उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। असम विधानसभा को सैकिया आयोग की रिपोर्ट में उल्फा सदस्यों के परिवारों के खिलाफ गुप्त हत्याओं के आरोपों का उल्लेख होने के बावजूद, महंत को राज्य के राजनीतिक नेतृत्व से दूर रखा गया। चंद्रमोहन पटवारी के अध्यक्षत्व काल में अगप (प्रगतिशील) के भंग होने के बाद, उन्हें अगप में पुन: शामिल किया गया और पार्टी में एक प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। 2010 में एनडीटीवी साक्षात्कार में महंत ने कहा था-‘भारत की अखंडता और सुरक्षा की खातिर, हम कोई भी दोष स्वीकार करने को तैयार हैं। अगर विद्रोही समूह हमारी सेनाओं पर हमला करते हैं, तो उन्हें (सुरक्षा बलों को) जवाब देने का अधिकार होना चाहिए। हालाँकि, उल्फा समर्थकों की न्यायेतर हत्याओं का मुझ पर लगाया गया आरोप मेरी छवि खराब करने के लिए है।’

महंत दो बार असम के मुख्यमंत्री रहे और उम्र के लिहाज से उन्होंने राजनीति में एक नया मानक गढ़ा. असम के मुख्यमंत्री होने के बाद भी उनका देशव्यापी पहचान थी. इसी तरह ममता बेनर्जी का राजनीतिक कद भी वैसा ही है, जैसा महंत का. थोड़ा ममता बेनर्जी के बारे में जान लेना भी सामयिक होगा. ममता बेनर्जी आरंभ से जुझारू रही हैं. स्वाधीनता सेनानी पिता की बिटिया ममता ने सबसे पहले बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु से बलात्कार पीडि़त लडक़ी को न्याय दिलाने के लिए भिड़ गईं.  लेकिन पुलिस ने उन्हें  गिरफ्तार कर लिया और हिरासत में ले लिया। तब उन्होंने संकल्प लिया कि वह केवल मुख्यमंत्री के रूप में उस बिल्डिंग में फिर से प्रवेश करेंगे। इसके बाद से वे लगातार जनसंघर्ष करती रहीं. 1997 में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और दो बार रेल मंत्री बनीं। एनडीए और यूपीए दोनों के साथ गठजोड़ के बाद नंदीग्राम और सिंगूर आंदोलनों के दौरान बनर्जी की प्रमुखता और भी बढ़ गई। अंत में, वे 2011 में और 2016 में भी अधिक बहुमत के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री चुनी गईं।

अपने आरंभिक दिनों में ममता  योगमाया देवी कॉलेज में अध्ययन के दौरान, उन्होंने कांग्रेस (आई) पार्टी की छात्र शाखा, छत्र परिषद यूनियंस की स्थापना की, जिसने समाजवादी एकता केन्द्र से संबद्ध अखिल भारतीय लोकतान्त्रिक छात्र संगठन को हराया। भारत (कम्युनिस्ट)। वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस (आई) पार्टी में, पार्टी के भीतर और अन्य स्थानीय राजनीतिक संगठनों में विभिन्न पदों पर रही।

ममता बनर्जी 1984 में जाधवपुर से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीतकर वे अपनी युवावस्था में कांग्रेस में शामिल हो गईं, उसी सीट को 1989 में उन्होंने खो दिया था और 1991 में फिर से जीत हासिल की। 2009 के आम चुनावों तक उन्होंने सीट को बरकरार रखा। उन्होंने 1997 में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और दो बार रेल मंत्री बनीं। ममता बनर्जी ने 1984 में जादवपुर में अनुभवी कम्युनिस्ट सोमनाथ चटर्जी को हराकर अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता। कांग्रेस में रहते हुए, बनर्जी ने एचआरडी, युवा मामलों और खेल तथा महिला एवं बाल विकास मंत्रालयों में राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद, ममता को राज्य में माओवादी खतरे से कुशलता से निपटने का श्रेय दिया जाता है।

महंत और ममता बेनर्जी जमीनी राजनीतिक लड़ाके रहे हैं और आज वे भारतीय राजनीति में अपना अलग मुकाम बनाये हुए हैं. प्रशांत किशोर रणनीतिकार से राजनीति में आए हैं. दूसरे दलों की जीत की रणनीति बनाते हुए उन्हें राजनीति की बारीकियों का ज्ञान होगा लेकिन वे इनकी तरह राजनीति मेें कितना कामयाब हो पाएंगे, यह कहना मुश्किल होगा. चूंकि उनका अपना एक कद है जिसकी वजह से मीडिया उन्हें तरजीह देता रहा है और इसका वे स्वयं की पार्टी के लिए कितनी कारगर रणनीति बना कर सफल हो पाते हैं, यह विधानसभा चुनाव परिणाम बताएगा.

जमीन लड़ाई और रणनीति से राजनीति का भेद

संदर्भ प्रफुल्ल कुमार महंत, ममता बेनर्जी  और प्रशांत किशोर  प्रो. मनोज कुमार साल 2014 में जनआंदोलन से अरविंद केजरीवाल जैसे नेता का अभ्युदय...