छायाचित्र वरिष्ठ छायाकार श्री प्रकाश हतवलने की फेसबुक वॉल से साभार
प्रो. मनोज कुमार
चालीस बरस पहले भोपाल की में ‘हवा में जहर’ घुल गया था. यह जहरीली हवा जिंदा बस्तियों में बहने लगी. इस जहरीली गैस को नाम दिया गया ‘मिक’ यानि मिथाइल आइसोसाइनेट और इसे गर्भाधारण किया था अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड ने. आँख, गला के जरिए शरीर के हर अंग में यह जहरीली हवा घुल गई. रात के घुप्प अँधेरे में घुली जहरीली गैस ने जैसे पूरी जिंदगी को जहरीला बना दिया. 2-3 दिसंबर की वह दरम्यानी भयावह रात जब एक-दूसरे को कुछ सूझ नहीं रहा था. आँखों के सामने अँधेरा, धडक़न रूक रही थी. जाड़े के दिनों में बिस्तरों में लुके-छिपे लोगों में अचानक बला की जान आ गई. एक शोर उठा पीछे से. भागो, जान बचाओ. गैस रिस गई है. जानलेवा गैस. पलक झपकते ही सैकड़ों लोग भागने लगे. एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते जान बचाने के लिए दौड़ पड़े. अपनी अपनी धडक़न बचाने की जद्दोजहद में रिश्ते बेमानी हो गए. कोई पिता को छोडक़र भाग रहा था तो कोई बच्चे को. माँ को खबर नहीं, बहू पीछे छूट गई. बचपन में हमनिवाला भाई-बहिन एक-दूसरे का हाथ छुड़ाकर खुद की जान बचाने में जुट गए थे. यह खौफनाक मंजर था उस रात की.
हवा में बहती जहरीली गैस के खिलाफ पुराने भोपाल ने दौड़ लगा दी थी. कोई जयप्रकाश नगर से भाग रहा था तो किसी की टोली टीलाजमालपुरा से थी. आसपास के सारे मोहल्लेदार हवा में जहरीली गैस के विपरीत दिशा में भाग रहे थे. जिसे जो साधन मिला, उसी के हो गए. कौन छूटा और कौन साथ चल पड़ा, यह पलटकर देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी. खाँसते, आँखें मलते लोगों से सीहोर-रायसेन जाने वाली सडक़ बेतरतीब भीड़ से भर गई. यह शिकायत बेनामी होगी कि कोई किसी का नहीं रहा. सच तो यह है कि वह वक्त किसी का नहीं था. जो भाग सके, भाग गए, जो जान बचा सके, वो बचा ले गए. पीछे मौत का मंजर था. लाशों का अंबार था. दिल दहलाने देने वाला मंजर. आँखों का पानी तो कब का सूख चुका था. आँसू आए भी तो कैसे? कहा गया कि यह दुनिया की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना थी. इसके पहले शायद ही दुनिया में कहीं इस तरह मौत का मातम मनाया गया हो.
यह भोपाल की खासियत है कि दिन बेहतर है तो रोज झगड़ेंगे लेकिन विपदा है तो मदद के लिए हजारों हाथ बढ़ जाएंगे. उस दिन भी वही हुआ. पुराना भोपाल और उसके वाशिंदे जार-जार रो रहे थे. उनके आँसू पोंछने के लिए भोपाल के हर कोने से हजारों हाथ मदद के लिए उठ खड़े हुए. जिन्हें बचा सकते थे, बचा लिए. हस्पताल लाशों और बीमारों से पट गया था. जहाँ-तहाँ पड़े हुए थे. आज चालीस साल बाद भी उस मनहूस रात को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. बहने से बिसराने तक की गैस गाथा में कई अहम पड़ाव हैं. थोड़ा पीछे पलटकर देखें तो लगेगा कि ‘गैस गाथा’ आगे पाठ, पीछे सपाट वाली कथा बनकर रह गई है. जिन इलाकों में गैस रिसी थी, वे बेबस थे, मजबूर थे. यूका के खिलाफ आवाज उठाना तो क्या अपनी मदद के लिए भी आवाज नहीं उठा पा रहे थे. दिसंबर की तारीख आगे बढऩे लगी. दर्द बेइंतहा था लेकिन इलाज मामूली. मरने वाले मर रहे थे, कुछ वहीं पर तो कुछ तिल-तिल कर लेकिन भोपाल की छाती को छलनी करने वाली यूका वैसे ही बेशर्म की तरह मुस्कराता हुआ खड़ा था. हादसा बेबसी का ना होता और कोई दुर्घटना किसी आमफहम शहर में होती तो यूका की बिल्डिंग और इतराते गेस्टहाऊस को जमींदोज कर दिया जाता, जैसा गुस्साई भीड़ अक्सर कर दिया करती है. सत्ता के गठजोड़ ने यूका को बचा लिया.
खैर, इसके बाद शुरू हुआ ‘राहत की गैस गाथा’. अंतरिम राहत के नाम पर छोटी-मोटी राशि लोगों को मरहम लगाने के नाम पर मिलने लगी. ‘गैस गाथा’ में प्रेमचंद की कहानी कफऩ अपने आपको दोहरा रहा था. ‘गैस गाथा’ में कफनचोरों की निकल पड़ी. बड़ी संख्या में बेनामी लोग खुद को कागज में गैस पीडि़त बताकर मुआवजा माँगने लगे. यहां भी ‘राहत की गैस गाथा’ में वही हुआ, जो होता आया है. पहले-पहल तो अपने अपने वोट बैंक पक्का करने के लिए बड़े राजनेता वहाँ पहुँच कर श्रद्धांजलि अर्पित करते थे. शोकसभा का आयोजन होता था और आहिस्ता आहिस्ता ‘राहत की गैस गाथा’ अब मुआवजे तक सिमट गया. इस ‘गैस गाथा’ में कई संवेदनशील और मानवीय प्रसंग भी सुनने और देखने को मिला. उस समय का एक कड़ुआ सच यह भी था कि गैस रिसी पुराने भोपाल में और अफवाह पहुँची भोपाल के कोने-कोने में. इसके बाद डर और जिंदगी बचाने की जद्दोजहद ने पूरा मंजर ही बदल दिया. उस समय के चश्मदीद बताते हैं कि इस अफवाह का शिकार एक नवविवाहित दंपति भी हुआ. पति बाथरूम में था और पत्नी उसका इंतजार में बैठी थी तभी ‘गैस गाथा’ के साथ पहुँची भीड़ ने उस नवविवाहिता को कहा कि अपनी जान बचाओ. वह कहने लगी, मेरे पति को आने दें लेकिन भीड़ ने नहीं सुना और उसे अपने साथ ले गई. कोई घंटा भर ना बीता होगा, अफवाह की धुँध छटी और वह वापस घर पहुँची. ‘गैस गाथा’ ने इस परिवार की खुशी को भी निगल लिया. आहत पति ने फरमान सुना दिया कि-जब वह चंद मिनट उसकी प्रतीक्षा नहीं कर सकती तो जीवन का साथ कैसे चलेगा. स्वाभाविक रूप से ‘गैस गाथा’ की अफवाह ने जिंदगी शुरू होने से पहले ही उसे मार दिया. ऐसे अनेक प्रसंग उस दरम्यान गुजरे.
‘गैस गाथा’ का सबसे अहम किरदार मेरी रिपोर्टिंग में सुनील राजपूत मिला. उसने बताया था कि इस हादसे में उसके परिवार के 11 जनों की मौत हुई थी. एक छोटे भाई और एक छोटी बहन के साथ वह बच गया था. ‘गैस गाथा’ के वक्त सुनील कोई नौ बरस का था. वह अमेरिका तक गवाही देने गया. पूरे परिवार की अंतरिम राहत के रूप में लाखों रुपये मिले. भोपाल से अमेरिका पहुँचते-पहुँचते तक 9 बरस का सुनील सयाना हो गया था. पैसों की चकाचौंध ने उसका बचपन छीन लिया था. वह चालाक हो गया था. साल-दर-साल उसका लालच बढ़ता गया. लालच में उसने अपनी छोटे भाई-बहिन को जलाने की कोशिश की. वह गलत सोहबत में भी पड़ गया था. हालाँकि समय गुजरने के साथ वह बदलने लगा. अपने छोटे-भाई बहिन को खुशहाल जिंदगी देने की कोशिश की. इस सब में वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था. ‘गैस गाथा’ में सेवा कर रही संस्था ने सुनील की सुध ली और एक दिन वह भी दुनिया को अलविदा कह गया. ऐसे अनेक प्रसंग है जो ‘गैस गाथा’ को और भी संवेदनशील बना देते हैं. ‘राहत की गैस गाथा’ का एक दुखद पहलू यह भी रहा कि अनेक लोग बेकार और बेकाम हो गए. साथ में बाजार की रंगत भी बदलने लगी. राहत राशि से सौदा-सुलह बढ़ गया.
इन सबके बीच ‘गैस गाथा’ का चालीसवां भी होने को आ गया. इन चालीस सालों में यक्ष प्रश्र की तरह यूका का कचरा पड़ा रहा. जहरीली गैस बहने से लेकर बिसराने तक विवादों का लंबा सिलसिला चल पड़ा. ‘गैस गाथा’ का यह डरावना पक्ष था कि जितनी तबाही जहरीली हवा ने की थी, उससे कहीं अधिक तबाही का डर इस जहरीले कचरे से था. सरकार, जनता और अदालत से होता हुआ ‘गैस गाथा’ को बिसराने का समय आ गया था. अदालती आदेश के बाद पीथमपुर में जहरीले कचरे कें निपटान के लिए सहमति बनी. इसे लेकर अनेक तरह की आशंकाएँ व्यक्त की गईं लेकिन परीक्षण और जाँच के बाद सर्तकता के साथ बिसरा दिया गया. ‘गैस गाथा’ का यह अहम पड़ाव था. कल तक भोपाल भयभीत था, अब पीथमपुर में ‘जहर का डर’ समा गया था. ‘गैस गाथा’ का चालीसवां होने के साथ फौरीतौर पर ‘एंड’ मान लिया जाए लेकिन ‘एंडरसन गाथा’ इतिहास के काले पन्ने में दर्ज है. ‘गैस गाथा’ ने झीलों के शहर को दर्द के ऐसे सैलाब में डुबो दिया है कि चालीस क्या, चार सौ साल बाद भी जख्म दुखते रहेंगे. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

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