यह थप्पड़ लोकतंत्र पर है, पवार पर नहीं
मनोज कुमार
महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान एक नौजवान ने देश के कृषिमंत्री को थप्पड़ जड़ दिया। कृषिमंत्री को लगा यह थप्पड़ दरअसल किसी मंत्री का मामला नहीं है बल्कि समूचे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर थप्पड़ पड़ने का मामला है। देश में फैल रहे अराजकता की यह गूंज है और इस गूंज के लिये कहीं न कही अण्णा हजारे जवाबदार हैं। अण्णा हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगु फूंका तो एकबारगी पूरा देश उनके साथ हो लिया था। इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि समूचा देश भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुका है किन्तु चार दिन पहले अण्णा ने जब हिटलरी अंदाज में शराब पीने वालों को पेड़ से बांधकर पीटने की बात कही तो लोगों को इस तथाकथित गांधी से हिटलर की बदबू आने लगी। उनकी बातों ने देश में अराजकता का माहौल बना दिया है। और ताजा मामला इसी की बानगी है। उनके ताजा बयान को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि बस एक ही थप्पड़, उनकी सोच को सार्वजनिक करता है।
याद रखा जाना चाहिए कि जो लोग अण्णा के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं उनमें अधिकांश युवा वर्ग हैं और किसी भी सार्वजनिक मंच पर खड़े व्यक्ति की यह जवाबदारी हो जाती है कि इस युवाशक्ति को सकरात्मक दिशा में ले जाएं। यह उस व्यक्ति की जवाबदारी है कि वह युवाशक्ति को कैसे संयमित रखे लेकिन अण्णा अपनी जवाबदारी से चूक गए हैं। यह ठीक है कि रालेगांव में अण्णा शराब का सेवन करने वालों को पेड़ से बांध कर पीटते हों या टेलीविजन के पर्दे पर केवल धार्मिक फिल्मों का प्रसारण होता हो किन्तु यह जरूरी नहीं है कि पूरे देश में यह व्यवस्था लागू हो। अण्णा एक साथ पूरे तंत्र को, पूरी व्यवस्था को बदलने की कोशिश में लग गये और वे यहीं से चूक गए। वे आहिस्ता आहिस्ता चलते तो शायद जिन लोगों ने अण्णा में गांधी का अक्स देखा था, उनके वे आदर्श बन गये होते लेकिन अब अण्णा एक आदर्शवादी गांधी बन पाएंगे, इस बात पर लम्बी बहस की शुरूआत हो चुकी है।
अण्णा की बातों ने देश की युवाशक्ति को दिग्भ्रमित कर दिया है और जिन समस्याओं का समाधान युवा स्वयं की कोशिशों से कर सकते थे, अब वे हिंसक हो गए हैं। देश के कृषिमंत्री को थप्पड़ मारने वाले युवक को कानून के तहत सजा हो सकती है किन्तु यह अराजक ध्वनि पूरे देश में, गांव गांव में गूंज रही है और जिसका परिणाम पल प्रति पल हर जगह होने से इंकार करना मुश्किल है।
कानून के लिये यह अराजकता एक और बड़ी समस्या के रूप में सामने आएगा। जिस भ्रष्टाचार को लेकर देश उबल रहा है, अब उसके सामने एक नये किस्म की चुनौती आ खड़ी हुई है। जो युवा देश के कृषिमंत्री को थप्पड़ मारने की हिमाकत कर सकता है, वह कल अपने बुर्जुगों के साथ गुस्से में क्या नहीं करेगा, इसकी कल्पना करना भी बेमानी है।
दुनिया में हम लोकतंत्र के सबसे बड़े माने जाते हैं। वि·ा के कई देश हमारी नीतियों को सराह रहा है और उस पर चलने की बात कर रहा है। वै·िाकरण के इस दौर में मूल्य बदल रहे हैं। महंगाई को लेकर हमारा जो गुस्सा है वह पूरी तरह सकारण नहीं है। हमारे नेताओं ने, तंत्र इस बात को समझाने में विफल रहा कि महंगाई के कारण क्या हैं। दरअसल वोट की राजनीति में हम सस्ती लोकप्रियता के दौर में विकास को दरकिनार करते आये हैं और जो महंगाई हमें दो दशक पहले झेल लेना चाहिए थी, आज हम झेलने के लिये मजबूर हैं। सब्सिडी ने हमारी आदतें खराब कर दी हैं। हमें हर चीज सस्ते में चाहिए, रियायतें चाहिए और जब अधिकारों की बात आती है तो हम हड़ताल पर उतर आते हैं। दो दशकों में महंगाई बढ़ी है, इस बात से इंकार नहीं लेकिन इसकी तुलना में वेतन में जो बढ़ोत्तरी हुई है, मजदूरी में जो बढ़ोत्तरी हुई है, क्या इस पर ध्यान नहीं देंगे। अभी हाल ही में लागू छठें वेतनमान ने राहत का पिटारा खोल दिया है।
कुछ लोग ऊपर कही गयी मेरी बातों से असहमत हो सकते हैं लेकिन क्या कभी उन्होंने इस बात की जांच की कि उनके घर में राशन पर कितना खर्च होता है और मोबाइल पर बात करने में कितना? शायद नहीं। लगभग पचास लोगों से बात करने पर पता चला कि उनके परिवार में पांच लोग हैं और उनके घर पर राशन प्रतिमाह अढ़ाई से तीन हजार रुपये का आता है और मोबाइल का बिल तो उसकी कीमत है लगभग आठ से दस हजार रुपये। एक परिवार में प्रति व्यक्ति औसतन दो मोबाइल सेट हैं और एक का बिल लगभग ८ सौ से एक हजार रुपये आता है। क्या आपने कभी मोबाइल शुल्क में रियायत की मांग की तो उनके पास कुतर्क था कि कंपनिया स्वयं होकर रियायत दे देती हैं। अब इन महानुभावों को कौन समझाए कि जब देश में लगातार हर चीजों की कीमतों में वृद्धि हो रही है तब मोबाइल की दरें क्यों कम हो रही हैं?
अब मेरा सवाल अण्णा और उनकी टीम से है कि क्या उन्होंने इस बात पर कभी कोई जनजागरण का प्रयास किया? अण्णा एक सवाल मेरा यह भी है कि वे अपनी टीम के सदस्यों से इस बात का शपथ पत्र लें कि उनकी टीम के साथियों ने कभी शराब नहीं पी और यदि पी है तो वे कभी नहीं पियेंगे और इसके बाद भी पी तो अण्णा उन्हें सरेराह पेड़ से बांधकर कोड़े लगाएंगे। यह बातें सहज नहीं है और आसान भी नहीं। गांधीजी ने कभी कलफ किया हुआ चमकता हुआ कुर्ता और धोती नहीं पहनी, उन्होंने अपने हर उस ऐब को समाज के सामने खुलकर बयान किया और बताया कि उन्होंने उससे क्या सीखा। दरअसल गांधी के रास्ते पर चल कर सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाना है तो पहले युवाशक्ति को संयमी बनायें, उन्हें अहिंसक बनायें।
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