यह सच है कि दुनिया का पहला विज्ञापन वर्तमान मध्यप्रदेश के मंदसौर (तत्कालीन दशपुर) में पाया गया था, जो कि दशपुर अभिलेख है। यह गुप्त काल में 436-455 ईस्वी के आसपास संस्कृत में लिखा गया एक शिलालेख है। इस अभिलेख में रेशम बुनकरों के एक संघ के गुजरात से दशपुर आने और एक सूर्य मंदिर के निर्माण का वर्णन है, जिसे दुनिया के सबसे पुराने विज्ञापनों में से एक माना जाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश का ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश के खातेे में दुनिया का पहला विज्ञापन करना भी है. समय के साथ विज्ञापन के तेवर और तासीर बदलता गया. हम यह मान सकते हैं कि विज्ञापन का मूल ध्येय समाज को सूचित करना होता है जैसा कि गुप्त काल में 436-455 निर्मित विज्ञापन के संदर्भ में भी उल्लेखित है कि इसका मुख्य उद्देश्य रेशम बुनकरों के संघ की उपलब्धि (एक सूर्य मंदिर का निर्माण) का प्रचार करना था। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि विज्ञापन का प्रथम गुण समाज को सूचित करना है. जिस गुप्तकाल के विज्ञापन की चर्चा हम कर रहे हैं और जिस काल में हम हैं, संचार साधनों की व्यापकता हो चुकी है. विज्ञापनों के इर्द-गिर्द हर पल-छिन कैद हो चुका है. आँख खुलने के साथ, बिस्तर में जाते तक विज्ञापन हमें बताता है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है.
विज्ञापन का मनोविज्ञान यह भी कहता है कि एक ही उत्पाद को हर तरह से ऐसे प्रचारित करो कि उपभोक्ता उसे क्रय करने अथवा उपयोग करने के लिए विवश हो जाए. इसे अंग्रेजी में हैमरिंग भी कहते हैं अर्थात दिमाग में बार-बार जोर डालना. विज्ञापन तो कोई भी हो सकता है लेकिन विज्ञापन का निर्माण कैसे किया जाए? यहाँ विज्ञापन निर्माण कौशल की चुनौती होती है और इसमें सबसे जरूरी होता है कि विज्ञापन के लिए संवाद कैसे लिखें जाएं. इस संदर्भ में हाल ही में हमसे बिछुड़े पीयूष पांडे एक मानक गढ़ गए हैं. विज्ञापन लोगों के दिलों तक कैसे उतरे? पीयूष ने रोजमर्रा की जिंदगी से शब्द उठाये और उसे गढ़ा. जैसे चल मेरी लूना, क्या स्वाद है जिंदगी में, मिले सुर मेरा तुम्हारा, अबकी बार मोदी सरकार, दो बूंद जिंदगी की, एमपी गजब है, ठंडा मतलब कोका-कोला, बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज, हर घर कुछ कहता है। विज्ञापनों मेंं उल्लेखित ये शब्द वो हैं जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग में आते हैं और जब ये शब्द विज्ञापन के रूप में रेडियो, टेलीविजन और अखबारों के पन्ने पर उतरे तो लगा कि हमारी बात हो रही है. मन को मथने वाले शब्द ही बेजान वस्तुओं को भी जानदार बना देते हैं. यह कमाल पीयूष पांडे ने किया और वे सबको याद आए. याद करना होगा कि ‘वाशिंग पावडर निरमा’ भी ऐसा ही विज्ञापन है जो दशकों से लोग गुनगुना रहे हैं.
विज्ञापन के व्यवसायिक पक्ष के साथ उसके सामाजिक और नैतिक मूल्यों की बात करते हैं तो केनवास बड़ा हो जाता है. यूँ तो विज्ञापन का बेसिक कांसेप्ट उत्पाद का अधिकाधिक विक्रय करना होता है लेकिन सामाजिक और नैतिक मूल्य का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. नयी पीढ़ी को स्मरण नहीं होगा कि कोई चार दशक पहले मॉडल मधु सप्रे ने नंगे बदन सांप लपेटकर विज्ञापन किया था जिसकी भत्र्सना हुई. ऐसे और भी कई विज्ञापन हैं जिसे समाज ने नकार दिया. यह भारतीय समाज है और यहाँ वाशिंग पावडर निरमा या हमारा बजाज जैसा संवाद ही सफल हो पाता है. हमारे घरों में चींटियों से बचाव के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ का उपयोग किया जाता है. हम सबको पता है कि माँ सीता की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण ने जो रेखा बाँधी थी जिसे ‘लक्ष्मण रेखा’ कहा गया. इस पंक्ति को उत्पादक ने खूबसूरत ढंग से उपयोग किया और सालों से बिना विवाद ‘लक्ष्मण रेखा’ का विक्रय कर रहे हैं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की टीम ने कुछ ऐसे राजनीतिक विज्ञापन जारी किए जिसे आम मतदाता समझ ही नहीं पाया लेकिन 2014 में अबकी बार मोदी सरकार या चाय पर चर्चा सफलता का पैमाना बनी. कम्पनियाँ बारीकी से उपभोक्ता के व्यवहार को जाँचती है. कहा जाता है कि टूथपेस्ट की बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनी ने पेस्ट का मुँह अपेक्षाकृत बड़ा कर दिया जिससे जो पेस्ट एक माह चलता था, उसकी खपत बढ़ गयी. अन्य उत्पादों में समय-समय पर यह तकनीक अपनाया जाता है.
बावजूद इसके यह भारतीय समाज है जो कितना भी आधुनिक हो जाए, वह अपनी जमीन नहीं छोड़ता है. रिसर्च जर्नल ‘समागम’ का यह अंक पीयूष पांडे को समर्पित है और उनके बहाने हम विज्ञापन के समाज का आकलन कर रहे हैं. विज्ञापन की दुनिया में जाने के लिए नयी पीढ़ी के पास बेशुमार अवसर है. और वह पीयूष पांडे के शब्द संयोजन को सीख ले तो आसमां और ऊँचा हो जाता है. विज्ञापन से सिर्फ उत्पाद नहीं बेचे जो बल्कि दिल का रिश्ता बनता है.

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