मनोज कुमार
इस समय की पत्रकारिता को सम्पादक की कतई जरूरत नहीं है। यह सवाल कठिन है लेकिन मुश्किल नहीं। कठिन इसलिए कि बिना सम्पादक के प्रकाशनों का महत्व क्या और मुश्किल इसलिए नहीं क्योंकि आज जवाबदार सम्पादक की जरूरत ही नहीं बची है। सबकुछ लेखक पर टाल दो और खुद को बचा ले जाओ। इक्का-दुक्का अखबार और पत्रिकाओं को छोड़ दें तो लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में ‘‘टेग लाइन‘‘ होती है- ‘‘यह लेखक के निजी विचार हैं। सम्पादक की सहमति अनिवार्य नहीं।‘‘इस टेग लाइन से यह बात तो साफ हो जाती है कि जो कुछ भी छप रहा है, वह सम्पादक की सहमति के बिना है। लेकिन छप रहा है तो सहमति किसकी है लेखक अपने लिखे की जवाबदारी से बच नहीं सकता लेकिन प्रकाषन की जवाबदारी किसकी है? सम्पादक ने तो किनारा कर लिया और लेखक पर जवाबदारी डाल दी। ऐसे में यह प्रश्न उलझन भरा है और घूम-फिर कर बात का लब्बोलुआब इस बात पर है कि प्रकाशनों को अब सम्पादक की जरूरत ही नहीं है और जो परिस्थितियां हैं, वह इस बात की हामी भी है। इस ‘‘टेग लाइन‘‘ वाली पत्रकारिता से हम टेलीविजन की पत्रकारिता को सौफीसदी बरी करते हैं क्योंकि यहां सम्पादक नाम की कोई संस्था होती है या जरूरत होगी, इस पर चर्चा अलग से की जा सकेगी। यहां पर हम पत्रकारिता अर्थात मुद्रित माध्यमों के बारे में बात कर रहे हैं। अस्तु।
भारतीय पत्रकारिता की आज की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। जवबादारी से बचती पत्रकारिता भला किस तरह से अपनी सामाजिक जवाबदारी का निर्वहन कर पाएगी, सवाल यह भी है कि क्या समय अब गैर-जवाबदार पत्रकारिता का आ गया है। यह सवाल गैर-वाजिब नहीं है क्योंकि भारतीय पत्रकारिता ने पत्रकारिता का वह स्वर्णयुग भी देखा है जहां सम्पादक न केवल जवाबदार होता था बल्कि सम्पादक की सहमति के बिना एक पंक्ति का प्रकाशन असंभव सा था। भारतीय पत्रकारिता का इतिहास बताता है कि व्यवस्था के खिलाफ लिखने के कारण एक नहीं कई पत्रकारों को जेल तक जाना पड़ा लेकिन उन्होंने कभी भी जवाबदारी से खुद को मुक्त नहीं किया। उल्टे सम्पादक उपत कर सामने आता और कहता कि हां, इस लेख की मेरी जवाबदारी है और आज के सम्पादक का जवाब ही उल्टा है। मैं कुछ नहीं जानता, मेरा कोई वास्ता नहीं है।
आज की पत्रकारिता में सम्पादक की गौण होती या खत्म हो चुकी भूमिका पर चर्चा करते हैं तो भारतीय पत्रकारिता के उस गौरवशाली कालखंड की सहज ही स्मरण हो आता है जब सम्पादक के इर्द-गिर्द पत्रकारिता की आभा होती थी। हालांकि सम्पादक संस्था के लोप हो जाने को लेकर अर्से से चिंता की जा रही है। यह चिंता वाजिब है। एक समय होता था जब कोई अखबार या पत्रिका, अपने नाम से कम और सम्पादक के नाम पर जानी जाती थी। बेहतर होने पर सम्पादक की प्रतिभा पर चर्चा होती थी और गलतियां होने पर प्रताड़ना का अधिकारी भी सम्पादक ही होता था। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक नहीं अनेक सम्पादक हुए हैं जिन्होंने भारतीय पत्रकारिता को उजाला दिया। समय गुजरता रहा और आहिस्ता आहिस्ता सम्पादक संस्था का लोप होने लगा। प्रकाशन संस्थाओं ने मान लिया कि सम्पादक की जरूरत नहीं है। प्रकाशन संस्था का स्वामी स्वयं सम्पादक हो सकता है और अपने अधीनस्थों से कार्य करा सकता है। उन्हें यह भी लगने लगा था कि सम्पादक करता-वरता तो कुछ है नहीं, बस उसे ढोना होता है। ये लोग उस समय ज्यादा कष्ट महसूस करते थे जब सम्पादक उनके हस्तक्षेप को दरकिनार कर दिया करते थे। एक तरह से यह अहम का मामला था।
स्वामी या सम्पादक के इस टकराव का परिणाम यह निकला कि सम्पादक किनारे कर दिए गये।
प्रकाषन संस्था के स्वामी के भीतर पहले सम्पादक को लेकर सम्मान का भाव होता था, वह आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने लगा। कई घटनाएं हैं जो इस बात का प्रमाण है जो यह बात साबित करती हैं कि सम्पादक के समक्ष स्वामी बौना हुआ करता था। स्वामी इस बात को जानता था कि सम्पादक ज्ञानी है और प्रकाशन एक सामाजिक जवाबदारी। इस नाते वह स्वयं के अहम पर न केवल नियंत्रण रखता था बल्कि अपने प्रकाशन के माध्यम से लोकप्रिय हो जाने का कोई लालच उसने नहीं पाला था। कहने के लिए तो लोग सन् 75 के आपातकाल के उन काले दिनों का स्मरण जरूर कर लेते हैं जब पत्रकारिता अपने कड़क मिजाज को भूल गई थी। सवाल यह है कि 40 साल गुजर जाने के बाद भी हम पत्रकारिता के आपातकालीन दिनों का स्मरण करेंगे या और गिरावट की तरफ जाएंगे. जहां तक मेरा अनुभव है और मेरी स्मरणशक्ति काम कर रही है तो मुझे लगता है कि सम्पादक संस्था को विलोपित करने का काम आपातकाल ने नहीं बल्कि प्रकाषन संस्था के स्वामी के निजी लालच ने किया है। उन्हें लगने लगा कि कागज को कोटा-सोटा तो खत्म हो गया है। सो आर्थिक लाभ तो घटा ही है बल्कि उसके भीतर ‘स्टेटस का सपना पलने लगा। वह अपने सम्पादक से ज्यादा पूछ-परख चाहता है और चाहता है कि शासन-प्रशासन में उसका दखल बना रहे।
स्वामी के इस लालच के चलते सम्पादक संस्था को किनारे कर दिया गया और सम्पादक के स्थान पर प्रबंध सम्पादक ने पूरे प्रकाशन पर कब्जा कर लिया। एक प्रकाशन संस्था से शुरू हुई लालच की यह बीमारी धीरे-धीरे पूरी पत्रकारिता को अपने कब्जे में कर लिया। पत्र स्वामियों के इस लालच के कारण उन्होंने कम होशियार और उनकी हां में हां मिलाने वाले सम्पादक रखे जाने लगे। गंभीर और जवाबदार सम्पादकों ने इस परम्परा का विरोध किया लेकिन संख्याबल उन सम्पादकों की होती गई जो हां में हां मिलाने वालों में आगे रहे। सम्पादक संस्था की गुपचुप मौत के बाद पत्रकारिता का तेवर ही बदल गया। प्रबंध सम्पादक की कुर्सी पर बैठने वाले सम्पादक के सामने लक्ष्य पत्रकारिता नहीं बल्कि अर्थोपार्जन होता है सो वह पत्र स्वामी को बताता है कि फलां स्टोरी के प्रकाशन से कितना लाभ हो सकता है। स्वामी का एक ही लक्ष्य होता है अधिकाधिक लाभ कमाना। सम्पादक संस्था के खत्म होने और प्रबंध सम्पादक के इस नए चलन ने पेडन्यूज जैसी बीमारी को महामारी का रूप दे दिया।
कुछ भी कहिए, यह ‘‘टेग लाइन' वाली पत्रकारिता है मजेदार। जिस अखबार में लेख छापा जा रहा है, उसका सम्पादक-स्वामी कहता है कि यह विचार लेखक के निजी हैं। इसका सीधा अर्थ होता है कि बड़ी ही गैर-जवाबादारी के साथ पत्र-पत्रिकाओं ने लेख को प्रकाशित कर दिया है। न तो प्रकाशन के पूर्व और न ही प्रकाशन के बाद लेख को पढ़ा गया। जब सम्पादक इस तरह की भूमिका में है तो सचमुच में उसकी कोई जरूरत नहीं है। जब एक सम्पादक किसी लेख अथवा प्रकाशन सामग्री को बिना पढ़े प्रकाषन की अनुमति दे सकता है और साथ में इसकी जवाबदारी लेखक के मत्थे चढ़ा देता है तो क्यों चाहिए हमें कोई सम्पादक, जब लेखक को अपने लिखे की जवाबदारी स्वयं ही कबूल करनी है तो सम्पादक क्या करेगा, इन सम्पादकों को कानून का ज्ञान नहीं होगा, यह बात उचित नहीं है लेकिन प्रबंध सम्पादक की हैसियत से वह इससे बचने का उपाय ढूंढ़ते हैं और इसी का तरीका ये ‘‘टेग लाइन वाली पत्रकारिता है। गैर-जवाबदारी के इस दौर में भारतीय पत्रकारिता जिम्मेदार सम्पादक की प्रतीक्षा में खड़ी है जो कहेगी कि छपे हुए एक आलेख नहीं अपितु एक-एक शब्द में सम्पादक की सहमति है और वह इसके प्रकाशन के लिए जवाबदार है।
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