घाव को हरा कर गया
अपनी हरियाली और झील के मशहूर भोपाल ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन इस पर्यावरण प्रेमी शहर को कोई जहरीली गैस निगल जाएगी लेकिन सच तो यही था। हुआ भी यही और यह होना कल की बात कर तरह लगती है जबकि कयामत के पच्चीस बरस गुजर चुके हैं। इन बरसों में कम से कम दो पीढ़ी जवान हो चुकी है। गंगा नदी में जाने कितना पानी बह चुका है। पच्चीस बरस में दुनिया में कितने परिवर्तन आ चुके हैं। सत्ताधीशों के नाम और चेहरे भी बदलते रहे हैं। इतने बदलाव के बाद भी कुछ नहीं बदला तो भोपाल के अवाम के चेहरे का दर्द। यह घाव इतना गहरा था कि इसे भरने में शायद और भी कई पच्चीस साल लग जाएं। जिस मां की कोख सूनी हो गयी, जिस दुल्हन ने अपना पति खो दिया, राखी के लिये भाई की कलाई ढूंढ़ती बहन का दर्द वही जान सकती है। इस दर्द की दवा किसी सरकार के पास, किसी हकीम के पास नहीं है बल्कि यह दर्द पूरे जीवन भर का है। कुछ लोग यह दर्द अपने साथ समेटे इस दुनिया से चले गये तो कुछ इस दर्द के साथ मर मर कर जी रहे हैं। यह दर्द उस बेरहम कंपनी ने दिया था जिसे यूनियन कार्बाइड के नाम से पुकारा जाता है। हजारों की संख्या में बेकसूर लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले हवाई जहाज से उड़ गये। परदेसी हवाई जहाज में उड़ने के साथ ही भोपाल का सुख-चैन ले उड़े। इसे वि·ा की भीषणतम त्रासदी का नाम दिया गया। दुनिया भर में इसे लेकर आवाज गूंजी। कसूरवारों के लिये सजा तो साफ थी किन्तु कानून ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है। फिर शुरू हुआ तारीख पर तारीख का सिलसिला, गवाहों और सबूतों को जुटाने की कवायद और इस पूरी कवायद में पता ही नहीं चला कि कब पच्चीस बरस गुजर गये। राहत और रकम की लड़ाई भी खूब चली। आखिरकार फैसले की घड़ी आ ही गयी। ७ जून की तारीख मुर्करर की गयी। भोपाल का दिल एक बार फिर धड़क उठा। पच्चीस बरस की यादें फिर ताजा हो गर्इं। मन में उलझन थी और चेहरे पर तनाव। आखिरकार दोषियों को क्या सजा मिलेगी, इस बात को लेकर कशमकश जारी था। उम्मीद की जा रही थी कि हजारों जान निगलने वाले परदेसियों को छुट्टे में नहीं छोड़ा जाएगा, उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी लेकिन अदालत का फैसला उन्हें फिर निराशा के भंवर में छोड़ गया। अदालत ने अपने सामने रखे दस्तावेजों को आधार बनाकर दो बरस की सजा और एक एक लाख रुपये का जुर्माना ठोंक दिया। फैसले के तत्काल बाद सात लोगों को पच्चीस हजार के मुचलके पर छोड़ दिया गया। इस फैसले के खिलाफ जुटे लोग आगे अदालत में जाने की तैयारी में हैं। फिलवक्त भोपाल की अवाम अवाक है। उसे सपने में भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि फैसला ऐसा भी आएगा। वि·ाास दरकने लगा। वे जीवन के इस मोड़ पर हैं जहां उनका सबकुछ लुट गया है। सरकार से राहत राशि मिली लेकिन वो राहत कौन देगा जब थका-हारा जवान बेटा आकर आवाज लगायेगा-अम्मां खाना दे दे...पति के आने की राह तकती उस बेचारी को यह पता है कि दरवाजा उसे ही बंद करने जाना है...स्कूलों में अब शोर मचने लगा है लेकिन पच्चीस पहले जो सन्नाटा खींच गया था...उस सन्नाटे को चीरने की कोशिश तो हो नहीं सकती। मौत का शहर बने भोपाल में तब एक दूसरे के आंसू पोंछने वाले भी नहीं थे और आज इस फैसले ने एक बार फिर उसी मुकाम पर पहुंचा दिया है कि आखिर क्या करें?
अपनी हरियाली और झील के मशहूर भोपाल ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन इस पर्यावरण प्रेमी शहर को कोई जहरीली गैस निगल जाएगी लेकिन सच तो यही था। हुआ भी यही और यह होना कल की बात कर तरह लगती है जबकि कयामत के पच्चीस बरस गुजर चुके हैं। इन बरसों में कम से कम दो पीढ़ी जवान हो चुकी है। गंगा नदी में जाने कितना पानी बह चुका है। पच्चीस बरस में दुनिया में कितने परिवर्तन आ चुके हैं। सत्ताधीशों के नाम और चेहरे भी बदलते रहे हैं। इतने बदलाव के बाद भी कुछ नहीं बदला तो भोपाल के अवाम के चेहरे का दर्द। यह घाव इतना गहरा था कि इसे भरने में शायद और भी कई पच्चीस साल लग जाएं। जिस मां की कोख सूनी हो गयी, जिस दुल्हन ने अपना पति खो दिया, राखी के लिये भाई की कलाई ढूंढ़ती बहन का दर्द वही जान सकती है। इस दर्द की दवा किसी सरकार के पास, किसी हकीम के पास नहीं है बल्कि यह दर्द पूरे जीवन भर का है। कुछ लोग यह दर्द अपने साथ समेटे इस दुनिया से चले गये तो कुछ इस दर्द के साथ मर मर कर जी रहे हैं। यह दर्द उस बेरहम कंपनी ने दिया था जिसे यूनियन कार्बाइड के नाम से पुकारा जाता है। हजारों की संख्या में बेकसूर लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले हवाई जहाज से उड़ गये। परदेसी हवाई जहाज में उड़ने के साथ ही भोपाल का सुख-चैन ले उड़े। इसे वि·ा की भीषणतम त्रासदी का नाम दिया गया। दुनिया भर में इसे लेकर आवाज गूंजी। कसूरवारों के लिये सजा तो साफ थी किन्तु कानून ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है। फिर शुरू हुआ तारीख पर तारीख का सिलसिला, गवाहों और सबूतों को जुटाने की कवायद और इस पूरी कवायद में पता ही नहीं चला कि कब पच्चीस बरस गुजर गये। राहत और रकम की लड़ाई भी खूब चली। आखिरकार फैसले की घड़ी आ ही गयी। ७ जून की तारीख मुर्करर की गयी। भोपाल का दिल एक बार फिर धड़क उठा। पच्चीस बरस की यादें फिर ताजा हो गर्इं। मन में उलझन थी और चेहरे पर तनाव। आखिरकार दोषियों को क्या सजा मिलेगी, इस बात को लेकर कशमकश जारी था। उम्मीद की जा रही थी कि हजारों जान निगलने वाले परदेसियों को छुट्टे में नहीं छोड़ा जाएगा, उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी लेकिन अदालत का फैसला उन्हें फिर निराशा के भंवर में छोड़ गया। अदालत ने अपने सामने रखे दस्तावेजों को आधार बनाकर दो बरस की सजा और एक एक लाख रुपये का जुर्माना ठोंक दिया। फैसले के तत्काल बाद सात लोगों को पच्चीस हजार के मुचलके पर छोड़ दिया गया। इस फैसले के खिलाफ जुटे लोग आगे अदालत में जाने की तैयारी में हैं। फिलवक्त भोपाल की अवाम अवाक है। उसे सपने में भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि फैसला ऐसा भी आएगा। वि·ाास दरकने लगा। वे जीवन के इस मोड़ पर हैं जहां उनका सबकुछ लुट गया है। सरकार से राहत राशि मिली लेकिन वो राहत कौन देगा जब थका-हारा जवान बेटा आकर आवाज लगायेगा-अम्मां खाना दे दे...पति के आने की राह तकती उस बेचारी को यह पता है कि दरवाजा उसे ही बंद करने जाना है...स्कूलों में अब शोर मचने लगा है लेकिन पच्चीस पहले जो सन्नाटा खींच गया था...उस सन्नाटे को चीरने की कोशिश तो हो नहीं सकती। मौत का शहर बने भोपाल में तब एक दूसरे के आंसू पोंछने वाले भी नहीं थे और आज इस फैसले ने एक बार फिर उसी मुकाम पर पहुंचा दिया है कि आखिर क्या करें?
भारत में न्याय पालिका पर ही भरोसा रह गया था. अब वाह भी मुह चिढ़ा रहा है. अफ़सोस.
जवाब देंहटाएंवाह मनोज जी, एक बहुत पुराने लेख का शीर्षक याद आ गया-क्या निराश हुआ जाए. यह भारतीय न्याय प्रणाली है, जिसमें इतने छेद हैं कि छलनी भी शरमा जाए, इसी कारण आरोपी खुले आम घूमते हैं और बेक़स्रूर सींखचों के पीछे पाए जाते हैं. सच भोपाल वालोंके साथ न्याय नहीं हुआ.
जवाब देंहटाएं