प्रो. मनोज कुमार
आखिरकार ‘ज्ञानपीठ’ विनोद कुमार शुक्ल जीवन संघर्ष में पराजित होकर अलविदा कह दिया. उनका जाना नियति की स्वीकृति हो सकती है लेकिन समाज और साहित्य को यह बिलकुल भी गंवारा नहीं था. उनकी एक-एक धडक़न समाज के लिए धरोहर थी. कहते हैं सरल होना कठिन नहीं है लेकिन सरल बने रहना कठिन है. विनोदजी ने सरल बने रहना को सच कर दिखाया था. अविभाजित मध्यप्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में पढ़ाते हुए वे रचना किया करते थे. उनके जानने वाले जानते थे कि विनोदजी किस मिट्टी के बने हुए हैं. बेहद सरल और सहज. अपनों से छोटे हों, हमउम्र हों या उम्रदराज, उनके पास जाकर किसी ने खुद को छोटा नहीं पाया. यह बहुत कम होता है कि किसी को श्रेष्ठ सम्मान से नवाजा जाए तो पूरा समाज स्वयं को सम्मानित महसूस करता है. विनोदजी को जब ‘ज्ञानपीठ’ मिलने का ऐलान हुआ तो यह भी उन अपवाद वाले पल-छीन में था. रायपुर से दिल्ली तक स्वागत और उत्साह का माहौल था.
‘वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह’ अपनी इस पहली कविता संगह से वे चर्चा में आ गए. यह प्रयोगधर्मी शीर्षक को पढक़र सुनकर साहित्य प्रेमी चौंक गए थे. तब उस दौर में ऐसा प्रयोग ना के बराबर था. वे इस बात के कभी हामी नहीं रहे कि कविता को नारे की तरह गढ़ा जाए. उनकी रचनाओं में लोक की छाप दिखती है तो आधुनिक समाज में हो रहे परिवर्तन, आकांक्षाओं के साथ उनकी संवेदनशीलता झलकती है. सही मायने में देखा जाए तो उनका लेखन सुपतिेिष्ठत कवि भवानी प्रसाद मिश्र की बातों को आगे बढ़ाते हुआ दिखता है जिसमें भवानी भाई कहते हैं- जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख.
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर के थे लेकिन उनकी कविताएं और कथा संसार सारी भौगोलिक सीमा को लांघ जाती है. ज्ञानपीठ सम्मान का ऐलान हो जाने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि ‘मेरे पास में शब्द नहीं हैं कहने के लिए, क्योंकि बहुत मीठा लगा कहूंगा, तो मैं शुगर का पेशेंट हूं. मैं इसको कैसे कह दूं कि बहुत मीठा लगा. बस अच्छा लग रहा है.’. यह सादगी उन्हें और बड़ा बनाती है.
एक जनवरी, 1937 में विनोद कुमार शुक्ल का जन्म साहित्य से रचे-बसे शहर राजनांदगांव में हुआ. वे अध्यापक रहे और पूरा समय साहित्य को समर्पित कर दिया था. उम्र के 88वें पड़ाव पर खड़े विनोद कुमार शुक्ल वैसे ही सहज और सरल रहे जैसा कि छत्तीसगढ़ का एक व्यक्ति होता है. वे ज्ञानपीठ सम्मान को केवल सम्मान नहीं मानते हैं बल्कि अपनी जवाबदारी के रूप में देखते थे. बकौल विनोद कुमार शुक्ल ‘मुझे लिखना बहुत था, बहुत कम लिख पाया. मैंने देखा बहुत, सुना भी मैंने बहुत, महसूस भी किया बहुत, लेकिन लिखने में थोड़ा ही लिखा. कितना कुछ लिखना बाकी है, जब सोचता हूं, तो लगता है बहुत बाकी है. इस बचे हुए को मैं लिख लेना चाहता हूं. अपने बचे होने तक मैं अपने बचे लेखक को शायद लिख नहीं पाऊंगा, तो मैं क्या करूं? मैं बड़ी दुविधा में रहता हूं. मैं अपनी जिंदगी का पीछा अपने लेखन से करना चाहता हूं. लेकिन मेरी जिंदगी कम होने के रास्ते पर तेजी से बढ़ती है और मैं लेखन को उतनी तेजी से बढ़ा नहीं पाता, तो कुछ अफसोस भी है’. ऐसे थे विनोद जी.
विनोद जी के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर सुपरिचित फिल्मकार मणि कौल फिल्म भी बना चुके हैं. उनकी कहानियाँ ‘आदमी की औरत’ एवं ‘पेड़ पर कमरा’ पर राष्ट़ीय फिल्म इंस्टीट्यूट, पूना द्वारा अमित दत्ता के निर्देशन में निर्मित फिल्म को वेनिस अंतरराष्टीय फिल्म समारोह 2009 में ‘स्पेशल मेनशन अवार्ड’ मिला. उनके उपन्यास ‘दीवार में एक खिडक़ी रहती थी’ पर प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक मोहन महर्षि सहित अन्य रचनाओं पर निर्देशकों द्वारा नाट्य मंचन भी हो चुका है.
ज्ञानपीठ के पहले उन्हें मध्यपदेश शासन का गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, मध्यप्रदेश कला परिषद का रज़ा पुरस्कार, मध्यपदेश शासन का शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, मोदी फाउंडेशन का दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, भारत सरकार का साहित्य अकादमी सम्मान, उत्तरपदेश हिन्दी संस्थान का हिन्दी गौरव सम्मान, अंग्रेजी कहानी संग्रह के लिए मातृभूमि सम्मान के साथ ही साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्य’ मनोनीत किया गया था.
विशिष्ट भाषिक बनावट, संवेदनात्मक गहराई, उत्कृष्ट सृजनशीलता से उन्होंने भारतीय भाषा साहित्य को समृद्ध किया है. इसलिए कहते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल हो जाना आसां नहीं है. तभी तो 59वें ज्ञानपीठ सम्मान के लिए चयनित हो जाने की सूचना के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि-चिंतक अशोक वाजपेयी का कहते हंै कि ‘यह सम्मान एक ऐसे व्यक्ति को दिया गया है, जिसने अपनी रचनाधर्मिता को निपट साधारण और नायकत्व से निरपेक्ष व्यक्ति को समर्पित किया है’. वे समाज के नब्ज को जानते हैं और उन पर भी उनका दखल है.
विनोद कुमार शुक्ल की कविता संगह लगभग जयहिंद वर्ष, 1971, वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह, वर्ष 1981, सब कुछ होना बचा रहेगा, वर्ष, 1992, अतिरिक्त नहीं, वर्ष 2000, कविता से लंबी कविता, वर्ष 2001, आकाश धरती को खटखटाता है, वर्ष 2006, पचास कविताएँ, वर्ष 2011, कभी के बाद अभी, वर्ष 2012, कवि ने कहा -चुनी हुई कविताएँ, वर्ष 2012, प्रतिनिधि कविताएँ, वर्ष 2013 में पकाशित हुई. उपन्यास संग्रह नौकर की कमीज़, वर्ष 1979, खिलेगा तो देखेंगे, वर्ष 1996, दीवार में एक खिडक़ी रहती थी, वर्ष 1997, हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़, वर्ष 2011, यासि रासा त, वर्ष 2017, एक चुप्पी जगह, वर्ष 2018 है. कहानी संग्रह मेें पेड़ पर कमरा, वर्ष 1988, महाविद्यालय, वर्ष 1996, एक कहानी, वर्ष 2021, घोड़ा और अन्य कहानियाँ, वर्ष 2021 के साथ कहानी/कविता पर पुस्तक ‘गोदाम’, वर्ष 2020, ‘गमले में जंगल’, वर्ष 2021 हैं. विनोद कुमार शुक्ल की अनेक कृतियों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है. साहित्य, संस्कृति एवं मनुष्यत्व के ‘ज्ञानपीठ’ विनोद जी के चले जाने से उनके पीछे जो रिक्तता आयी है, उसे भरा पाना लगभग कठिन सा होगा. तस्वीर इंटरनेट से साभार