सोमवार, 1 जून 2020

धीरे धीरे मरते अखबारों का सच

30 मई 1826 से हिंदी पत्रकारिता का श्रीगणेश होता है. इस लम्बे सफर की ख़ास बात यह रही कि समय गुजरने के साथ साथ हिंदी पत्रकारिता का फलक बढ़ता गया. बात यहाँ तक पहुंच गई कि अंगेरजी के प्रकाशनों को हिंदी की ओर आना पड़ा. आपातकाल से भी जूझ कर हिंदी पत्रकारिता ने अपना गौरव बढ़ाया लेकिन कोरोना काल आते तक सम्पादक की सत्ता समाप्त हो चुकी थी. कल की पत्रकारिता आज की मीडिया बन गई थी. नतीजा यह निकला कि बड़ी संख्या में साथी बेरोजगार हो गए. अख़बार मरे तो नहीं मरणासन्न हालात में पहुंच गए  इन्ही मुद्दों पर चर्चा समागम के नए अंक में. विस्तार से पूरा अंक पढ़ने के लिए समागम के वेबसाइट www.sabrangweb.com पर जाकर पीडीफ देखें 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

खबर का मजा या मजे की खबर

प्रो. मनोज कुमार  अखबार में खबर पढ़ते हुए लोगों की अक्सर टिप्पणी होती है खबर में मजा नहीं आया, सवाल यह है कि पाठक को मजे की खबर चाहिए या खबर ...