सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

media

पत्रकारिता में हर कोई वरिष्ठ?

-मनोज कुमार

इन दिनों पत्रकारिता में वरिष्ठ शब्द का चलन तेजी से हो रहा है। सामान्य तौर पर इसके उपयोग से कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए किन्तु हम शब्दों के सौदागर हैं तो शब्दों के उपयोग और प्रयोग से सावधान रहना चाहिए। अमूनन दो पांच वर्ष काम कर चुके पत्रकार अपने नाम के साथ वरिष्ठ पत्रकार का उपयोग करना नहीं भूलते हैं। वरिष्ठ शब्द के उपयोग के पीछे शायद मंशा अधिक सम्मान और स्वयं को वि·ासनीय बनाने की हो सकती है किन्तु मेरी समझ में पत्रकारिता एकमात्र ऐसा पेशा है जहां वरिष्ठ और कनिष्ठ शब्दों का बहुत कोई अर्थ नहीं है। हमारे पेशे में महत्व है तो आपके लेखन का। रिर्पाेटिंग करते हैं तो आपकी रिपोर्ट आपकी वरिष्ठता और कनिष्ठता का पैमाना बनती है और आप सम्पादक हैं तो समूचा प्रकाशन आपका आईना होता है। कदाचित लेखक हैं तो विषयों की गंभीरता आपके वरिष्ठता का परिचायक होती है। इधर अपनी लेखनी, रिपोÍटग और सम्पादकीय कौशल से परे केवल पत्रकारिता में गुजारे गये वर्षाें के आधार पर स्वयंभू वरिष्ठ बताने की ताक में लगे हुए हैं।

वरिष्ठ क्या होता है, इसकी मीमांसा भी कर लेते हैं। मेरी राय में वरिष्ठ से आशय उस शब्द से है जो किसी भी क्षेत्र में एक समय तक काम कर लेने एवं ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद प्राप्त होता है। राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, डॉ. वेदप्रताप वैदिक, आलोक मेहता आदि इत्यादि ऐसे नाम हैं जो स्थापित हैं और जिन्हें आप स्वयं आगे आकर वरिष्ठ कहला कर स्वयं को गौरवांवित महसूस करते हैं किन्तु उन हजारों पत्रकारों को जिन्हें दो, पांच अथवा दस साल काम करते हुए हैं और वे अपने आपको वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूं। वरिष्ठता वास्तव में काम किये गये वर्षाें से नहीं होती है बल्कि काम में प्राप्त ख्याति से होती है।

मेरी बातों से असहमत साथी कह सकते हैं कि किसी समाचारपत्र अथवा पत्रिका में सम्पादक पद सुशोभित करने वालों को वरिष्ठ पत्रकार नहीं माना जाना चाहिए? मैं यहां भी ना में कहूंगा। सवाल यह है कि अपने सम्पादक रहने की अवधि में उन्होंने ऐसा क्या किया कि समाचार पत्र को अलग से ख्याति मिली। यदि ऐसा है तो उन्हें स्वयं ही वरिष्ठता का दर्जा मिल जाएगा किन्तु ऐसा नहीं है तब उन्हें इस तखल्लुस का स्वयं होकर उपयोग करना होगा। यह सर्वविदित है कि किस तरह आज के दौर में जोड़-तोड़ कर सम्पादक बना जाता है। कहीं राजनीतिक सिफारिश के बूते पर तो कहीं किसी और माध्यम से। किसी सम्पादक की सफलता उसके नाम से अखबार की पहचान हो, ऐसा होना चाहिए न कि अखबार के नाम से सम्पादक की पहचान हो। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें अखबार बाद में, सम्पादक पहले होते थे।

इन दिनों एक गलत परम्परा शासकीय विभाग भी डाल रहे हैं। वे जाने-अनजाने में ऐसे अनेक पत्रकारों के नाम के साथ वरिष्ठ पत्रकार जोड़ देते हैं जो किसी भी कीमत पर इसके हकदार नहीं हैं। उनके पीछे उनका मकसद उनके अखबारों में अपनी खबरों के लिये पर्याप्त जगह पाना होता है। शायद शासकीय विभाग अपने मकसद में कामयाब हो भी जाते होंगे किन्तु पत्रकार साथी एक बार वरिष्ठता पदनाम में कैद हो जाता है तो वह फिर कभी नहीं उबर पाता है। इन दिनों विभिन्न वेबसाइट एवं ब्लॉग में लिखने वाले पत्रकारों को भी वरिष्ठ पत्रकार लिखा जा रहा है, जो एक हद तक तो ठीक है किन्तु इसके बाद शायद नहीं। पत्रकारों के काम का लेखा-जोखा करने के बाद ही वरिष्ठ लिखा जाना बेहतर होगा। वरिष्ठ शब्द का मायने मेरे लिये अपने काम के प्रति अधिक जिम्मेदार होना है। जिम्मेदारी ही वरिष्ठता का दूसरा रूप है। वरिष्ठता शब्द का उपयोग सोच-समझ कर किया जाना ही वरिष्ठता शब्द का सम्मान किया जाना होगा।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के