सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

काटजू, निर्मल बाबा और मीडिया

मनोज कुमार
हम भारतीय कितने अंधविश्वासी हैं अथवा मूर्ख, इस पर फैसला करना थोड़ा मुश्किल काम है लेकिन असंभव नहीं। निर्मल बाबा की जो हकीकत बेपर्दा हुयी है, उसने यह बात तो प्रमाणित कर दी कि हम कितने अंधविश्वासी हैं लेकिन प्रेस कौंसिल के चेयरमेन काटजू के इस बयान की पुष्टि नहीं हो पाती है कि नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं। अंधविश्वासी और मूर्ख के बीच फकत एक बारीक सी रेखा है। शायद इसलिये इस बात पर बहस हो सकती है कि जो लोग बाबाओं के चक्कर में रहते हैं उन्हें अंधविश्वासी कहें अथवा मूर्ख माना जाए। निर्मल बाबा का जो सच सामने आ रहा है, वह चौंकाने वाला नहीं बल्कि डराने वाला है। एक तरफ देश में लोग महंगाई के नीचे दबकर मरे जा रहे हैं। पाई पाई बचाने की जुगत लगा रहे हैं और दूसरी तरफ निर्मल बाबा जैसे लोगों को करोड़ों रुपये भी कम पड़ रहे हैं। यह अंधविश्वास हम भारतीयों की कमजोरी है और समय समय पर उग आने वाले ऐसे कथित बाबाओं के कारण काटजू जैसे विद्वान यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं। काटजू का बयान हमें जख्मी कर देता है। हमारी बुद्धिमता और हमारी पहचान का संकट खड़ा करता है। उनकी बातों को सौफीसदी सच न मानें तो भी इस बात से इंकार करना मुश्किल है कि हमारी भावनाओं से खिलवाड़ कर हमें मूर्ख बनाया जाता है। काटजू किन संदर्भाें में हम भारतीयों की तुलना करते हैं, यह तो वे ही जानें लेकिन हमारी भावनाओं के साथ जो खिलवाड़ किया जाता है, वह दुर्भाग्यजनक है। इस बात का हम पूरी ताकत के साथ इंकार करते हैं कि भारतीय मूर्ख हैं किन्तु इस बात से इंकार भी नहीं करते कि हम बेहद सरल और सीधे स्वभाव के हैं जिसे अपने अपने हितों में कभी बाबानुमा लोग तो कभी कोई और हमारा इस्तेमाल कर लेता है। शायद इन्हीं स्थितियों को भांप कर काटजू ने भारतीयों को मूर्ख की संज्ञा दी जो उनके ओहदे और ज्ञान के अनुकूल नहीं है।

जस्टिज काटजू आम आदमी नहीं हैं बल्कि वे नीति-नियंताओं में से एक हैं। भारतीयों को मूर्ख कहने का साहस उन्होंने कुछ सोच ही किया होगा लेकिन यही साहस वे रोज-ब-रोज टेलीविजन के पर्दे पर उगते बाबाओं को रोकने के लिये दिखाया होता तो कम से कम मूर्ख भारतीय उनके आभारी होते। मीडिया ने ऐसे बाबाओं के संवर्धन और संरक्षण का दरवाजा खोला है तो मीडिया ने ही ऐसे बाबाओं को बेनकाब करने की जवाबदारी उठाने की पहल भी की है। निर्मल बाब का जो रहस्योद्घाटन हुआ है, वह मीडिया के प्रयासों से ही हुआ है। हम इस बात के लिये मीडिया को बधाई दे सकते हैं लेकिन इस बात के लिये हम मीडिया को भी कटघरे में खड़ा करने की बात कहेंगे कि बिना जाने समझे, ऐसे बाबाओं को प्रमोट करने की उनकी मंशा क्या है। पेडन्यूज पर बवाल तो मच रहा है किन्तु इन प्रायोजित बाबाओं पर मीडिया, प्रेस कौंसिल और जागरूक संस्थायें कब संज्ञान लेंगी और एक कायदा कब बनेगा जब बाबाओं का प्रचार अनावश्यक और अकारण न हो सके। जिस दिन यह पहल हो जाएगी उस दिन भारतीय न तो अंधविश्वासी रहेंगे और मूर्ख।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के