मनोज कुमार
किसी नन्हें शिशु के लिये मां ही उसकी पहली पाठशाला होती है और बाद के बढ़ते उम्र में अक्षर ज्ञान के लिये उसे स्कूल जाना होता है। इन दोनों शालाओं से लगभग हर व्यक्ति का साबका पड़ता है लेकिन जीवन की एक और पाठशाला होती है जहां सही अर्थों में जीवन को समझा जा सकता है। इस पाठशाला का नाम है अस्पताल। अपने सम्पर्क, रिश्तेदारी और कुछ मानव भाव से अक्सर मुझे अस्पताल की तरफ जाना होता है। इस बार काफी अरसा गुजर जाने के बाद अस्पताल जाने का मौका मिला था। अस्पताल में कोई आपका अपन भर्ती हो या आप किसी की देखरेख में गये हों, मन में एक तनाव सा होता है लेकिन इस बार बहुत कुछ ऐसा नहीं था। मेरे परिवार की बड़ी बिटिया ने एक शिशु को जन्म दिया था। रिश्ते में मैं नाना बन चुका था। सचमुच में मन को आल्हादित करने का सुखद अवसर था। सबकुछ ठीक होने की वजह से मैं रिलेक्स था और सोचा क्यों न अस्पताल का एक चक्कर लगा आऊं। पत्रकार एवं लेखक होने के नाते मन हमेशा से जिज्ञासु रहा है सो अस्पताल का चक्कर लगाते हुये भी मन कुछ सोच रहा था। तभी देखा कि एक आदमी दो लोगों के सहारे डाक्टर के कमरे की तरफ जा रहा है। किसी एक बिस्तर में सोये मरीज को स्वयं से उठा नहीं जा रहा है और वह दो लोगों की मदद से बड़ी मुश्किल से बैठने की कोशिश कर रहा है। कोई किसी को पानी पिला रहा है तो कोई किसी को दवा खिला रहा है। असशक्त और लगभग परास्त की मुद्रा में लोग अपनों के भरोसे खड़े हैं, पड़े हैं।
अस्पताल का यह दृश्य देखकर मुझे लगने लगा कि जीवन की असली पाठशाला तो यही है। जो लोग अस्पताल में भर्ती हैं, वे कहीं न कहीं अपने काम-धंधे से लगे होंगे। कुछ का नाम भी होगा। हर फन के माहिर लोग होंगे और जिन्हें कभी यह अहसास भी नहीं होगा कि वे इस तरह अस्पताल में पड़े रहेंगे अशक्त और दूसरों के सहारे। बड़ा अजीब सा लगता है सुनने और देखने में लेकिन जीवन का सच तो यही है। जिन लोगों को कभी सहारे की जरूरत महसूस नहीं हुई होगी, आज वे सहारे के लिये खड़े हैं। यह कुछ अलग सा नहीं है लेकिन सबकुछ वैसा भी नहीं है क्योंकि किसी के सहारे होने का मतलब ही स्वयं को परास्त कर देता है। मन में एक बात बार बार आ रही थी कि अस्पताल से बढक़र जीवन की पाठशाला और कौन सी होगी? जो लोग धन और लोकप्रियता के लालच में डूबे हंै, जिन लोगों को अपनों की कोई कद्र नहीं, जो लोग यह समझ बैठे हैं कि जीवन में लोग उनके आश्रित हैं, वे नहीं, जिन लोगों को यह भ्रम हो चला है कि धन से सबकुछ खरीदा जा सकता है, उन्हें इस सच से दो-चार होने के लिये एक बार अस्पताल आना जरूरी है। मरीज बन कर नहीं बल्कि जिंदगी की सच्चाई को देखने के लिये, यह जानने के लिये क्या जिंदगी वही है जो समझते हैं या जिंदगी यह है जो वे देख रहे हैं।
दुनिया की दूसरी पाठशाला किताबी ज्ञान दे सकती है। समझा सकती है कि अहंकार करना बेवकूफी है। सबकुछ यहीं धरा रह जाएगा, बंद मुठ्ठी आया था और खुली हथेली चला जाएगा, जैसी नसीहत शायद लोगों को न बदल पाये लेकिन अस्पतालनुमा पाठशाला जरूर जिंदगीको बदल देती है। दूसरों को असहाय देखकर स्वयं के असहाय होने का अहसास हो आता है और तब यही पल होता है जब अपनों की जरूरत महसूस होती है। इस जरूरत में धन और वैभव, नाम और लोकप्रियता किसी ताले में बंद तिजोरी की तरह होते हैं। किताबी ज्ञान से आगे का यह अनुभव किसी भी व्यक्ति को व्यवहारिक बना देता है। उसे उसके बनाये आवरण से बाहर निकाल कर ले आता है क्योंकि जीवन जितना बड़ा सच है, मृत्यु का भय उससे कहीं बड़ा सच। इस सच से भी बड़ा सच होता है अपनों के बिना जीना लेकिन अस्पताल अपनों के साथ जीने की शिक्षा देता है बिना किसी सीख के। शायद इसलिये मुझे लगता है कि मां, स्कूल के बाद जीवन की पाठशाला अस्पताल को ही कहा जाना चाहिये।
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