सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सेल्फी पत्रकारिता के मायने

-मनोज कुमार
यह पत्रकारिता की नई रीत नहीं है और ना ही यह सेल्फी पत्रकारिता है। यह सौफीसदी मीडिया है और इसे सेल्फी मीडिया ही कहा जाना बेहतर होगा। पत्रकारिता अपने जन्म से लेकर आज तक सत्ता के संग-साथ चलने को न कभी आतुर हुई और न ही कभी विवश। वह तो सत्ता को गरियाने और जगाने का काम करती रही है और करती रहेगी। सच तो यह है कि जिसे हम सेल्फी पत्रकारिता का नाम दे रहे हैं, वहां पत्रकारिता है कहां पर? क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सेल्फी लेने वाले मीडिया साथियों ने इस पर कोई खबर लिखी या इस सेल्फी पत्रकारिता के पीछे कोई कथा सामने आयी जिससे समाज का भला होता? जवाब ना में होगा क्योंकि यह न तो सेल्फी पत्रकारिता है और न पत्रकारिता बल्कि यह एक किस्म का व्यक्तिगत आनंद का समय होता है जब ज्यादतर युवा पत्रकार प्रधानमंत्री के साथ अपनी यादें संजोकर रखना चाहते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। जीवन के सुखद क्षणों को संजोकर रखना कतई गलत नहीं है लेकिन इसे पत्रकारिता या मीडिया का नाम दिया जाना उचित नहीं है।
सेल्फी पत्रकारिता को लेकर बवाल उठने पर मीडिया दो भागों में बंट गई। एक पक्ष के लिए ऐसा किया जाना अनैतिक था तो दूसरा सेल्फी पत्रकारिता के पक्ष में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ फोटो सेशन को सामने लाकर सही साबित करने की कोशिश की है। उस समय या इस समय में कोई ज्यादा फर्क नहीं है क्योंकि तब उस दौर में सोशल मीडिया नहीं था और ना ही हमारे हाथों में कम्प्यूटर जैसा मोबाइल फोन। संचार के आधुनिक संसाधनों ने कैमरे के फोटो से लेकर मोाबाइल पर फोटो खींचने की तकनीक को समृद्ध किया है जिसे हम सेल्फी पत्रकारिता कह कर कोस रहे हैं।
सेल्फी पत्रकारिता हमें पीड़ा पहुंचा रही है लेकिन सच में पत्रकारिता के कटेंट को लेकर हम बहुत चिंतित नहीं हैं। एक दौर वह भी था जब पत्रकार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा ऐसे बड़े नेताओं से मुलाकात करता था। उनकी भेंट सौजन्य होती थी लेकिन पत्रकार की बारीक नजरों से जब कोई सूचना या घटना गुजरने लगे तो अगले दिन अखबार के पन्नों पर वह खबर का शक्ल लेती थी। खबरों को लेकर प्रतिक्रिया तो होती थी लेकिन जिस तरह सेल्फी पत्रकारिता को लेकर हंगामा मचा है, वैसा कुछ नहीं होता था। राजनेता सहनशील होते थे और व्यक्तिगत रिश्तों को पत्रकारिता से परे रखते थे और यही व्यवहार पत्रकारों का राजनेताओं से होता था। 
हालात बदल चुके हैं। अब पत्रकारिता के स्थान पर मीडिया है जहां सत्ता और मीडिया एक-दूसरे के पूरक बनते जा रहे हैं। सेल्फी पत्रकारिता के लोग पत्रकारिता के गुण-धर्म से परे हैं। किताबों में समाचार की परिभाषा पढ़ी और जनसम्पर्क के गुण सीखकर अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। सेल्फी पत्रकारिता के इस दौर में सहजता से हम अपने युवा साथियों की आलोचना कर सकते हैं और कर रहे हैं लेकिन क्या कभी वरिष्ठ पत्रकारों ने यह दायित्व लेने की जरूरत समझी कि अपनी नयी पीढ़ी को पत्रकारिता के गुण-धर्म बताया जाए। जनसरोकार की पत्रकारिय दायित्व के प्रति उनमें भावना जगायी जाए? शायद नहीं और हुआ भी हो तो अपवादस्वरूप। ऐसे में सेल्फी पत्रकारिता की आलोचना करने के बजाय सहमत हो जाना चाहिए कि भविष्य की पत्रकारिता, सेल्फी पत्रकारिता  होगी और यदि पत्रकारिता को बचाना चाहते हैं तो पत्रकारिता के गुरुजन अपने-अपने पीठ में पत्रकारिता की नयी पीढ़ी को सिखायें कि सेल्फी पत्रकारिता के पहले भी बहुत कुछ है। आज यह पहल नहीं की गई तो यह मान लेना चाहिए कि पत्रकारिता का एक ही सच शेष है और वह है सेल्फी पत्रकारिता। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक...

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता से सिरमौर स्वच्छ मध्यप्रदेश

  मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार                    स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का रिकार्ड इंदौर के नाम पर दर्ज हो गया है. स्वच्छ मध्यप्रदेश का तमगा मिलते ही मध्यप्रदेश का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो गया है. यह स्वाभाविक भी है. नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता के कारण मध्यप्रदेश के खाते में यह उपलब्धि दर्ज हो सकी है. स्वच्छता गांधी पाठ का एक अहम हिस्सा है. गांधी जी मानते थे कि तंदरूस्त शरीर और तंदरूस्त मन के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी उपाय है. उनका कहना यह भी था कि स्वच्छता कोई सिखाने की चीज नहीं है बल्कि यह भीतर से उठने वाला भाव है. गांधी ने अपने जीवनकाल में हमेशा दूसरे यह कार्य करें कि अपेक्षा स्वयं से शुरूआत करें के पक्षधर थे. स्वयं के लिए कपड़े बनाने के लिए सूत कातने का कार्य हो या लोगों को सीख देने के लिए स्वयं पाखाना साफ करने में जुट जाना उनके विशेष गुण थे. आज हम गौरव से कह सकते हैं कि समूचा समाज गांधी के रास्ते पर लौट रहा है. उसे लग रहा है कि जीवन और संसार बचाना है तो ...