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हम क्यों करें मुफ्त की समाजसेवा

-मनोज कुमार

लगभग एक सप्ताह पहले दिल्ली से आरंभ हो रहे किसी बेवसाइट के संचालक का फोन आया। वे चाहते थे कि मैं उनके लिये लिखूं। साथ ही उनकी मंशा थी कि मेरे ब्लॉग पर लगे आलेख का वे उपयोग करें। पहले पहल तो मुझे उनके आग्रह पर कोई आपत्ति नहीं हुई। मैंने हामी भर दी कि जो आलेख मेरे ब्लाग पर पब्लिश हो चुके हैं, उनका आप उपयोग कर सकते हैं। उन्होंने ऐसा किया भी। बेवसाइट शुरू होने के पहले तक मुझे पता नहीं था कि वे कितने और कैसे लेख का उपयोग करेंगे अथवा कर रहे हैं। इस बीच मैंने फोन करने वाले सज्जन को मेल से संदेश भेजा कि आप चाहें तो केवल आपके लिये आलेख लिखूंगा किन्तु इसके बदले मानदेय की व्यवस्था जरूर चाहूंगा। मेरे इस मेल का जवाब देना जरूरी नहीं समझा। अलबत्ता दो दिन बाद उनका संदेश मिला जिसमें बेबसाइट के आरंभ होने की सूचना थी। वेबसाइट पर जाकर सर्च किया तो पता चला कि मेरे दो आलेख का उपयोग किया गया है। एक आलेख मेरे नाम के साथ और एक आलेख बिना नाम के दिया गया है।

बेवसाइट के आरंभ होने पर बधाई का संदेश तथा एक नया आलेख बेवसाइट के लिये प्रेषित किया। अपनी शिकायत भी मैंने संदेश में भेजा। इस बार उन महाशय का जवाब आया इस सफाई के साथ कि इस वेबसाइट का संचालन कोई समाजसेवी संस्था करती है और जो लेखकों को भुगतान नहीं करती है। महोदय साथ में लिखते हैं कि वे मुझे अंधेरे में नहीं रखना चाहते हैं इसलिये जानकारी दे रहे हैं और साथ में लेख वापस भेज रहे हैं।

आप सोच रहे होंगे कि इस सब रामकहानी का मतलब क्या? आप ठीक सोच रहे हैं। दरअसल मैं अपने साथ हुए इस वाकये के माध्यम से यह बताना चाहता हूं कि बेवसाइट बनाने के लिये, संचालन के लिये तो सबके पास धन है किन्तु लेखकों को देने के लिये उनके पास कौड़ी नहीं है। यह ठीक है कि वे समाजसेवा करें किन्तु हम पत्रकार/लेखकों से मुफ्त की सेवा की उम्मीद क्यों रखते हैं। हमारा जीवन तो लेखन से ही चलता है और हम मुफ्त के चंदन घिसते रहे तो हमारी हालत समझी जा सकती है। बेवसाइट समाजसेवा के लिये है तो विज्ञापन क्यों लिया जा रहा है, उससे होने वाली कमायी आखिर किसके जेब में जा रही है। मैं अपने उन तमाम ब्लॉगर लेखक/पत्रकार साथियों से आग्रह करता हूं कि जो लोग समाजसेवा का दंभ भर रहे हैं, उनके लिये एक लाइन न लिखें। हम मीडिया के लोग हैं और मीडिया के लिये बिना शर्त लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे। जिन्हें समाजसेवा का शौक है, वे हमसे कोई उम्मीद न करें।

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