राजनीति का नाटक या नाटक की राजनीति
मनोज कुमार
हर राजनेता के मन में एक ऊंचे पद पाने की हसरत रहती है। प्रदेश का नेता है तो मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब बुनता है और देश का नेता है तो सहज स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर उसकी नजर होती है। ख्वाब बुनने में कोई बुराई नहीं है लेकिन जब जब राजनेताओं से यह सवाल किया जाता है अधिकांश नेता मुकर जाते हैं और वर्तमान मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री को ही अपना नेता बताते थकते नहीं हैं।
आज ही एक न्यूजचैनल पर छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल से प्रेस ने पूछ लिया कि क्या वे राज्य के भावी मुख्यमंत्री हैं, सवाल को दरकिनार कर गये और कांग्रेस पर भावी शब्द गढ़ने का आरोप लगा दिया लेकिन वे चेहरे की चमक को छिपा नहीं पाये। यह सच है कि भावी भविष्य के गर्त का सवाल है और अमर अग्रवाल को जरूर पता होगा कि आडवाणीजी भावी से वर्तमान नहीं बन पाये। कांग्रेस में भी कई भावी प्रधानमंत्री हुए लेकिन वे वर्तमान नहीं बन पाये। शायद इसलिये भी उन्हें यह भावी शब्द डराता होगा। पुराने अनुभवों से सीख लेना भी कोई कम बात नहीं होती है।
शब्दों से खेलना भले ही राजनेताओं का शगल न हो लेकिन वे खेलते जरूर हैं। सुबह सुबह पत्रकार दीपक चौरसिया ने उप्र चुनाव मैदान में डटे डीपी यादव से एक कसम की बात कर ली कि वे अब किसी पार्टी की तरफ मुंह नहीं करेंगे। दीपक के सवाल का जवाब तो नहीं दिया और उल्टे उनसे कसम लेने लगे कि वे आज जिस न्यूज चैनल में हैं, वे उसी में बने रहेंगे। राजनेताओं को बात समेटना भी आता है। इसी किस्से को विस्तार देने के बजाय डीपी यादव ने पांव पीछे खींचे और कह दिया कि समय सब कुछ तय करता है।
शब्दों के इस जाल से राजनीति का नाटक शुरू होता है और नाटक में राजनीति होती है, यह बात कई बार साबित हो चुका है। लालू यादव की बतियाना मीडिया को भी उतना ही भाता है जितना कि आम आदमी को। अर्जुनसिंह मीडिया फ्रेंडली रहे हैं लेकिन हमेशा संयत, सर्तक और गंभीर। इन दिनों दिग्विजयसिंह अपनी बातों से लोगों को मोह रहे हैं। आखिर में कहना होगा, बातें हैं बातों का क्या कहना।
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