मनोज कुमार
यदि आपकी उम्र चालीस के पार है तो आपके पास अपने ननिहाल की मीठी यादें आपके जेहन में इठला रही होगी लेकिन आपकी उम्र 30 के पहले की है तो आपके पास ननिहाल के मौज की कोई खुश्नुमा यादें साथ नहीं होगी क्योंकि आपकी डायरी में 30 अप्रेल दर्ज होगा नहीं होगा. 30 अप्रेल का दिन हमारे लिये तब खास दिन हुआ करता था. महीना और डेढ़ महीना इंतजार करने के बाद इस तारीख पर परीक्षा परिणाम आना तय होता था. चिंता और इंतजार परीक्षा परिणाम का नहीं होता था बल्कि चिंता थी कि जैसे ही छुट्टियों का ऐलान हो और हम भाग लें ननिहाल की तरफ. ननिहाल मतलब बेखौफ मस्ती के दिन. अमराइ जाकर गदर करने का दिन. रात में सब भाई-बहन मिलकर कभी लडऩे और रूठने मनाने का दिन. अब ये बातें बस किताबों में उसी तरह रह गई हैं जैसे कभी कोई शायर अपनी मोहब्बत बयां करता था.
अब 30 अप्रेल की तारीख कैलेण्डर में तो जरूर मौजूद है लेकिन जीवन से गायब हो गया है. अब 30 अप्रेल की जगह 30 मार्च आती है. एक डरावनी तारीख की तरह. इस दिन भी परीक्षा परिणाम की घोषणा होती है लेकिन भय पैदा करने वाली. नम्बरों की दौड़ इस दिन हर स्कूल में आप साफ साफ देख सकते हैं. दो-पांच नम्बरों से पीछे रह जाने का गम भी आज के बच्चों के लिये इतना बड़ा होता है कि वे अपना जीवन गंवाने से भी पीछे नहीं हटते हैं. नम्बरों की दौड़ में जीवन की हार का यह सिलसिला बढ़ चला है. 30 मार्च से ही शुरू हो जाता है बच्चों के मन में तनाव और इनसे कहीं ज्यादा शिकार होते हैं मां-बाप. दुकानों में लगी लम्बी कतारों में खड़े होकर घंटों बाद मिलने वाली कापी-किताबें और फीस की मोटी सी किताब. सब कुछ निचुड़ सा जाता है. इसके बाद बच्चों की पेशानी पर होती है चिंता की लकीरें. एक अप्रेल से फिर स्कूल जाने का तनाव. अप्रेल में सूरज की तपन बढ़ती जाती है और इसी के साथ बच्चों की परेशानी. जैसे तैसे महीना गुजरता है और सवा-डेढ़ महीने के लिये स्कूलों में छुट्टी हो जाती है. छुट्टी के पहले ही प्रोजेक्ट के नाम पर इतना काम दे दिया जाता है कि छुट्टी की खबर पाकर वे खुश होने के पहले ही उदास हो जाते हैं. बच्चों के साथ यह हालत मां-बाप की भी होती है क्योंकि प्रोजेक्ट बच्चों के लिये होता है किन्तु वर्क मां-बाप को करना पड़ता है.
आज बच्चों की हालत को देखकर समझ में नहीं आता है कि इनका बचपन कहां गुम हो गया है? हम तो बच्चे से होकर बड़े हुये हैं और ये बच्चे सीधे बड़े हो रहे हैं. इनके पास न तो दादा-दादी और नाना-नानी की मीठी यादें हैं और न साथ में बचपन की वो शरारतें जो इन्हें क्रियेटिव बनाये. कम्प्यूटर के सहारे, वीडियो गेम केे सहारे बड़े होते इन बच्चों के पास अपनी पीढ़ी को देने के लिये कुछ नहीं है. यदि है तो यह बताने के लिये कि कभी किसी से पिछडऩा नहीं है, रेस लगी है दौड़ जाओ और जितनी तेजी से भाग सकते हो, भाग लो. बचपन को मत जियो और शायद किशोरवय भी नहीं. किसी लडक़ी को बसा कर, किताबों को दिल से लगाकर याद करने का समय नहीं है. दिल ही तो है और यह दिल किसी पर आ गया तो ई-मेल कर दो या एसएमएस ठोंक दो. जवाब मिला तो ठीक नहीं तो दूसरी गाड़ी पकड़ लो. दुनिया मुठ्ठी में कर लो तो बच्चों ने सीख लिया है लेकिन 30 मार्च के बच्चों के पास 30 अप्रेल की खुशी मिनट भर के लिये नहीं है. मन करता है कि काश! मैं अपने बच्चों को 30 अप्रेल की अपनी खुशी दे सकता लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि हम इक्कसवीं सदी में जी रहे हैं, कैसे लौटें पीछे और पीछे...
बहुत बढि़या मनोज जी। वाकई आज हम सब दूर हो गए हैं 30 अप्रैल से। हमारा बचपन तो हमारी यादों में जिंदा है, पर हमारे बच्चों का बचपन कहाँ कैद है, इसे आपने सही पकड़ा। बहुत ही छोटे छोटे वाक्यों से आपने आज के बच्चों का चित्रण कर दिया। बधाई, जमीन से जुड़ छोटे से आलेख के लिए।
जवाब देंहटाएंडॉ महेश परिमल