-मनोज कुमार
मानव स्वभाव है कि विपदा कितनी भी छोटी या बड़ी हो, वह अपनों को सबसे पहले तलाश करता है. उत्तराखंड में जो विपदा टूटी है और इस विपदा में अनगिनत परिवारों के लोग एक-दूसरे से बिछड़ गये हैं. मां को बेटे की और पति को पत्नी की कोई खबर नहीं है. किसी का कोई तो किसी का कोई, गुम है अथवा गुमनाम. वह घर लौटेगा भी या नहीं, एक अनिश्चित सा माहौल है और ऐसे हालात में अपनों की तलाश पहली जरूरत और चिंता होती है और होनी भी चाहिये. एक परिवार या व्यक्ति अपने लोगों की चिंता करता है तो यह स्वाभाविक है किन्तु एक राज्य जब अपने नागरिकों की चिंता करता है तो यह अस्वाभाविक व्यवहार लगता है. उत्तराखंड में आया जलजला और उससे विनाश अकेले उत्तराखंड की पीड़ा और तकलीफ नहीं है बल्कि यह समूचे देश की पीड़ा और तकलीफ है और इसे राष्ट्रीय तकलीफ के रूप में देखना होगा.
उत्तराखंड में टूटी विपदा के बाद देश के अलग अलग राज्यों ने अपने अपने स्तर पर सहायता के लिये पहुंच गये हैं. पहुंच रहे हैं और सहायता का अनवरत सिलसिला जारी है. इस बात की तारीफ होनी चाहिये कि राज्य सरकारों ने अपने अपने स्तर पर प्रयास किया और जिसका सकरात्मक परिणाम सामने आने लगा है किन्तु राज्य सरकारों का यह व्यवहार समझ से परे है कि सारे राज्य चिन्ह चिन्ह कर ही अपने लोगों को ही क्यों बचा रहे हैं? जिस राज्य की सरकार जहां खड़ी है और विपदा में फंसा आदमी गुहार कर रहा है तो क्या वहां भी उससे उसे अपने प्रदेश के होने की आइडेंटी देनी होगी तभी उसके प्राणों की रक्षा हो सकेगी? जो सूचनायें और खबरें आ रही है, उससे यही ध्वनि निकल रही है कि फलां राज्य ने अपने इतने लोगों को बचा लिया. एक भी खबर मेरे संज्ञान में नहीं है कि अमुक प्रदेश के सहायता दल ने विपदा में फंसे दूसरे राज्यों के लोगों को बचा लिया. यह कम विस्मयकारी नहीं है कि इस आपदा में भी राज्य सरकारें अपने अपने लोगों की चिन्हारी कर रही हैं. राज्यों के इस बचाव अभियान को लेकर यह तर्क दिया जा सकता है कि किसी भी राज्य की प्राथमिकता अपने प्रदेशवासियों की सुरक्षा का है तो इससे भी असहमत नहीं हुआ जा सकता है किन्तु सवाल यह है कि यह आपदा नैसर्गिक है और इस नैसर्गिक आपदा में कोई अपना-पराया कैसे हो सकता है? दुर्भाग्य से ऐसा होता दिख रहा है. हर राज्य आंकड़ें प्रस्तुत कर रहा है कि इतने लोगों को सुरक्षित बचा लिया गया है.
उत्तराखंड में जो आपदा टूटी, उसके पीछे सिर पर खड़े चुनाव में लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में करने की बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. देश के पांच राज्यों में लगभग चार महीने बाद चुनाव होना है और कुछ नहीं बिगड़ा तो एक वर्ष बाद आमचुनाव होंगे. ऐसे में लोगों को अपने पक्ष में करने का यह अवसर दुर्लभ है और इसका लाभ लिये जाने में कोई बुराई नहीं है. यदि ऐसा नहीं होता तो कोई भी अपने ही लोगों की चिन्हारी करने के बजाय सबकी मदद के लिये आगे आते. अच्छा होगा कि मैं जो सोच रहा हूं, वह गलत निकले तो मन को राहत मिलेगी. क्योंकि जो कुछ हो रहा है और जो कुछ देखने को मिल रहा है, वह दुर्र्भाग्यपूर्ण है. एक तथ्य यह भी सामने आया है कि अब तक दुनिया का कोई भी देश भारत की मदद के लिये सामने नहीं आया है. उत्तराखंड की विपदा इतनी छोटी नहीं है कि वह संसार के देशों का ध्यान खींच न सके लेकिन अब तक ऐसी सूचना मेेरे देखने सुनने में नहीं आयी है. भारत के लोग इतने संबल और आत्मविश्वास से भरे हैं कि वे तकलीफों से दुखी तो जरूर होते हैं लेकिन फिर दुगुने उत्साह से स्वयं को खड़ा कर लेते हैं. उत्तराखंड की आपदा पहली बार नहीं है और न ही देश का यह पहला राज्य है इसलिये हम उम्मीद करते हैं कि लोग आपस की मदद से एक बार फिर उठ खड़े होंगे.
किन्तु राज्य सरकारों का यह व्यवहार समझ से परे है कि सारे राज्य चिन्ह चिन्ह कर ही अपने लोगों को ही क्यों बचा रहे हैं? जिस राज्य की सरकार जहां खड़ी है और विपदा में फंसा आदमी गुहार कर रहा है तो क्या वहां भी उससे उसे अपने प्रदेश के होने की आइडेंटी देनी होगी तभी उसके प्राणों की रक्षा हो सकेगी?
जवाब देंहटाएं..सरकारे चलाने वाले काश यह बात समझ कर मानव धर्म अपनाते तो कितना अच्छा होता ..पर राजनीति हर जगह अपना रंग दिखाना नहीं छोडती..
..सार्थक चिंतनशील आलेख ...
kavitaji, aabhari hu ki aapne mere man ki baat samzne ka prayas kiya. shukriya.
जवाब देंहटाएंmanoj kumar