मनोज कुमार
समूचा सामाजिक ताना-बाना रिश्तों से ही बना और गुंथा हुआ है. ऐसा लगता है कि समाज के जन्म के साथ ही रिश्ते टूटने को लेकर बिसूरने का सिलसिला शुरू हो गया होगा. यह बिसूरन समय गुजरने के साथ कुछ ज्यादा ही सुनने को मिल रहा है. मन में इन विचारों को लेकर जब अपने दोस्त से बात की तो वह भी रिश्तों के टूटन से दुखी नजर आया. औरों की तरह उसके पास भी यही जवाब था कि समय बुरा आ गया है. क्या करें, कुछ नहीं कर सकते हैं. यह मेरा दोस्त अजीज है और मैं उसका यह जवाब सुनकर स्तब्ध रह गया. सब यही कहेंगे तो अच्छा समय आयेगा कब? क्या राजनीति के अच्छे दिनों वाले झूठे राग से समय बदल जायेगा? शायद नहीं. दरअसल, हर अच्छे समय के लिये अच्छे प्रयासों की जरूरत होती है. अंग्रेजों की दासता से हम कभी मुक्त नहीं हो पाते लेकिन महात्मा गांधी ने शुद्ध मन से प्रयास किया और हम स्वाधीन हैं. गांधीजी और उनके साथ के लोग कहते कि क्या कर सकते हैं तो शायद आज भी हम पराधीन ही होते. बहरहाल, रिश्तों और समय की बदलने की बात को लेकर मैं नाउम्मीद नहीं हूं. थोड़े सोच और समझ के साथ दोनों को बदला जा सकता है. यह इसलिये भी संभव है कि आप अपनी जरूरतों के अनुरूप नई तकनीक का इस्तेमाल करना सीख सकते हैं तो रिश्तों को नया स्वरूप देने के लिये अपनी जरूरत क्यों नहीं बनाते.
रिश्तों में टूटन सबसे ज्यादा बुर्जुग लोगों के साथ देखने में आती है और इसका इलाज हमने वृद्धाश्रम के रूप में ढूंढ़ लिया है. वास्तव में रिश्ते दो तरह के माने गये हैं. पहला खून का रिश्ता और दूसरा दिल का रिश्ता. इससे आगे समझने की कोई कोशिश हुई ही नहीं. एक तीसरे किस्म के रिश्ते से रिश्तों को नये ढंग से परिभाषित किया जा सकेगा, इसे मैं अनुभव का रिश्ता कहता हूं. जो लोग अपनी उम्र जी चुके हैं और एक तरह से हमारे जीवन में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है, क्या उनसे हम अनुभव का रिश्ता नहीं बना सकते हैं. ऐसे बुर्जुग जिन्होंने अपने जीवन में कई बड़े काम किये लेकिन रिटायरमेंट के साथ वे बेकार हो गये. हमने भी मान लिया कि रिटायरमेंट के बाद आदमी अनुपयोगी हो जाता है. शायद शारीरिक तौर पर वह पहले जैसा काम न कर सके किन्तु बुद्धि के स्तर पर तो आदमी सशक्त होता ही है. ऐसे लोगों को शिक्षा के क्षेत्र में उपयोग में लाया जा सकता है. कोई लेखा का काम जानता हो तो किसी की मैनेजमेंट स्कील बेहतर हो, कोई गणित में महारत हो तो किसी के पास विज्ञान की समझ हो, और तो और जीवन विज्ञान में भी उनका पक्का दखल हो सकता है. क्यों न हम अपने बच्चों को महंगे कोचिंग में भेजने के बजाय इन अनुभवी लोगों का उपयोग करें.
उम्र के इस पड़ाव में इन्हें धन नहीं, सम्मान की जरूरत होती है. और जब उनके अनुभवों को एक मंच मिलेगा तो ये लोग वृद्धाश्रम से मुक्त होकर बेकार के बजाय उपयोगी हो जायेंगे. कुछेक घरों में इन बुर्जुगों को इसी तरह का सम्मान मिल रहा है. अनुभवों का जो हम लाभ प्राप्त करेंगे, उससे समाज में अनुभव का एक नया रिश्ता बनेगा और समय भी बदल जायेगा. हम यूरोपियन संस्कृति से मुक्त होकर अपने बड़ों को सम्मान देने की पुरानी रीत को नये रूप में ढाल सकेंगे. एक बार आप अपने घर, परिवार, मोहल्ले में अनुभव का रिश्ता बनाने की शुरूआत कर देखिये तो सही, कैसे आप के घर की बगिया में कोई मुरझाया फूल नहीं बल्कि घना छायादार बरगद का पेड़ होगा जो न केवल आपको छांह देगा बल्कि मन को भी प्रसन्न रखेगा.
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