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अपेक्षा और अनुभव


-मनोज कुमार
न दिनों मोबाइल पर आने वाले संदेश को गौर से पढ़ा जाये तो उनमें दर्शन का भाव होता है. गौर फरमायेंगे. एक संदेश आया कि आपकी सुबह अपेक्षा के साथ होती है और शाम एक नये अनुभव के साथ. बड़ा अच्छा लगा और इस दर्शन संदेश को सोचते हुये अखबार के पन्ने पलटने लगा तो वाकई यह संदेश मुझे व्यवहारिक लगा. मेरा मध्यप्रदेश देश के दूसरे राज्यों की तरह चुनावी बुखार से तप रहा है. दिसम्बर 13 में पहले विधानसभा चुनाव, फिर लोकसभा के चुनाव और इसके बाद स्थानीय निकाय एवं पंचायतों के चुनाव. इस चुनाव में किसकी जीत हुई, कौन जीतता है और इसके क्या परिणाम होंगे, इसकी जवाबदारी राजनीतिक प्रेक्षकों के भरोसे छोड़ देते हैं. एक पत्रकार की नजर से जब मैंने इन चुनाव को देखना शुरू किया तो दंग रह गया कि यह चुनाव परम्परागत नहीं हैं. समय के साथ सोच बदलती दिख रही है और उस वर्ग में बदलती दिख रही है जिनके हाथों में न केवल घर की कमान होती है बल्कि अब वे सत्ता की भागीदार भी होने चली हैं. मध्यप्रदेश में महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित कर दी गई हैं, इस लिहाज से भी उनकी भागीदारी बढ़ती दिख रही है. यह शुभ संकेत है लेकिन इससे भी बड़ी बात है कि उनकी सोच में निरंतर बदलाव आ रहा है. चुनाव के मैदान में उतरने वाली ये महिलायें सडक़, बिजली और पानी की बात नहीं करती हैं. इस बारे में उनका कहना है कि हमें मतदाता चुनता इसलिये ही है कि हम इन बुनियादी समस्याओं का रास्ता ढूंढ़ें और उन्हें राहत दें. इन महिलाओं की नजर में महिला शिक्षा, शौचालय, नशे के खिलाफ काम करना बड़ा मुद़दा बन गया है. इन मुद्दों को लेकर महिलायें न केवल सजग हैं बल्कि संजीदा भी. उनकी संजीदगी देखना है तो आपको पंचायतों में जाना होगा. उन छोटी जगहों पर जाना होगा जहां कि महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत लगभग न्यून है लेकिन उनकी जागरूकता देश की राजधानी में राज करने वाले किसी भी नेता से अधिक है.
स बारे में राजधानी भोपाल से लगे फंदा विकासखंड और ऐसे ही कुछ स्थानों में घूमने के बाद यह जानने का अवसर मिला. लगा कि दुनिया बदल रही है. हम इंटरनेट पर बैठकर भले ही ग्लोबल विलेज की कामना करें किन्तु भारत गांव की आत्मा है और इस सच को जानने का अवसर भी मिला. एक ऐसी ही महिला उम्मीदवार से जब पूछा गया कि उनके लिये चुनाव के मुद्दे क्या हैं तो तपाक से बोली पहले तो इन नशेडिय़ों को ठीक करूंगी और इसके बाद जिन बच्चियों के लिये स्कूल नहीं है, उसकी व्यवस्था करूंगी. मेरे लिये घर-घर में शौचालय बनाना भी एक बड़ा काम होगा क्योंकि हमारी बहनों की अस्मत खतरे में रहती है और हमें शर्म भी आती है. यह पूछे जाने पर पानी, बिजली और सडक़ आपके चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं है तो उनका सीधा सा जवाब था- जब काम नहीं करना हो और भुलावो में रखना हो तो बार बार इसे मुद्दा बनाओ. कोलार के पास सटे गांव में भी खड़ी आदिवासी महिला पंच प्रत्याशी सुखमनी के लिये भी पानी बिजली और सडक़ कोई मुद्दा नहीं था अपितु यह रोजमर्रा की जरूरत है और इसे पूरा करना  किसी भी पंचायत का काम है. इस बदलती सोच की थाह लेने के लिये जब हमने शहरी इलाकों में बात की तो लगा कि शहर आज भी पानी, बिजली और सडक़ की समस्याओं से ही दो-चार हो रहा है. बच्चियों के लिये शहरों में पर्याप्त स्कूल और कॉलेज हैं जबकि शहरी इलाकों में शौचालय की कोई दिक्कत नहीं है. नशे को भी ये शहरी महिला प्रत्याशी बहुत बड़ा विषय नहीं मानती हैं. 
स बदलती सोच और ठहरी सोच के फासले पर कोई दूसरी कक्षा तक पढ़ी बुधियारिन की बात चुभती हुई महसूस होती है. जब उनसे पूछा गया कि आप लोगों के लिये स्त्री शिक्षा, नशे के खिलाफ लामबंदी और शौचालय मुद्दा है तो शहरी महिला प्रत्याशियों के लिये ये बड़े मुद्दे क्यों नहीं हैं? सवाल सुनकर वह मुस्करायी और धीरे से कहा इसलिये तो परधानमंत्री जी स्मार्ट शहरों की बात कर रहे हैं. हम गांव वाले तो पहले से स्मार्ट हैं. इस अपढ़ सी महिला की बात सुनकर मैं भौंचक था. वह समाज में बदलाव के लिये अपनी सोच में तो बदलाव ला रही है बल्कि उसे दीन-दुनिया की भी खबर है और उसका यह दंश देता कमेंट कई तरफ सोचने के लिये मजबूर करता है. इस घटना से मुझे याद आ रहा है कि साक्षरता मिशन का एक दल बैतूल जिले के एक गांव में गया और उन्हें पढऩे के लिये प्रेरित करने लगा. इनमें से एक मजदूर से मासूमियत से पूछा कि उसे जितना गड्डा खोदने का काम दिया जाता है, वह पूरी ईमानदारी से करता है? सवाल के जवाब में ना तो था नहीं. अब उसका दूसरा सवाल था कि गड़बड़ी कौन करता है, वही पढ़े-लिखे लोग ना? इस सवाल का जवाब  हां और ना दोनों में नहीं था. जवाब था तो चुप रह जाना. हमारी चुप्पी को हमारी मजबूरी समझ कर वह मजदूर भी हमारी तरफ देख रहा था और हम सचमुच बेबस थे. 
मोबाइल पर आया संदेश ठीक कहता है कि हर दिन की समाप्ति एक अनुभव के साथ होती है. शायद आप भी मेरी बातों से सहमत होंगे. 

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