मनोज कुमार
यायावरी के अपने मजे होते हैं और मजे के साथ साथ कुछ अनुभव भी. मेरा यकीन यायावरी पत्रकारिता में रहा है. यायावरी का अर्थ गांव गांव, देश देश घूूमना मात्र नहीं है बल्कि यायावरी अपने शहर में भी की जा सकती है. मेरा अपना भोपाल शहर. ठंडे मिजाज का शहर, हमदर्द शहर. एक मस्ती और रवानगी जिस शहर के तासीर में हो, उस शहर में जीने का मजा ही कुछ और होता है. बड़े तालाब में हिल्लोरे मारती लहरें किसी को दीवाना बनाने के लिए काफी है तो संगीत की सुर-लहरियों में खो जाने के लिए इसी तालाब के थोड़े करीब से बसा कला गृह भारत भवन रोज ब रोज आपको बुलाता है. सुस्त शहर की फब्तियां भी इस शहर पर लोग दागते रहे हैं. जिन्हें पटियों पर बैठकर शतरंज खेलने का सउर ना हो, वह क्या जाने इस सुस्ती की मस्ती. यह वही पटिया है जहां भोपाल की गलियों से लेकर अमेरिका तक की चरचा भोपाली कर डालते हैं. पटिये की राजनीति ने किन किन को बुलंदियों तक पहुंचा दिया, इसकी खबर तो इतिहास ही रखता है. मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इससे किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, परंतु चिंता सब रखते हैं कि इस बार मुख्यमंत्री की गद्दी पर कौन बैठेगा. मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे-पीछे होते नेताओं को भी खबर नहीं होती है लेकिन पटियेबाजों को उनका पूरा इतिहास मालूम होता है. ऐसा है मेरा भोपाल.
मेरे भोपाल की बुनावट और बसाहट नवाबों ने की थी. वक्त के साथ नवाब फना हो गए. नवाब भले ही ना रहे लेकिन नवाबी तासीर भोपाल को दे गए. मेरा शहर भोपाल कभी जल्दबाजी में नहीं रहता है. सुकून की जिंदगी जीता है और भाईचारे के साथ यहां के लोग बसर करते हैं. गंगा-जमुनी संस्कृति इस शहर की तहजीब और पहचान है. पर ये क्या..मेरे भोपाल को किसी की नजर लग गयी है..वह भी महानगर बनने को बेताब नजर आने लगा है..भोपाल की तासीर बदलने लगी है..सुकून का मेरा भोपाल अब हड़बड़ी में रहता है..कभी घंटों की फिकर ना करने वाले भोपाली अब सेकंड का हिसाब रखने लगे हैं. खीर, सेंवई, घेवर और मीठे समोसे के साथ पोहे-जलेबी का स्वाद अब मुंह से उतरने लगा है. पिज्जा और बर्गर का चस्का भोपाल को लग गया है..मोटरसायकलों पर बैठे युवा को सेकंड में पिज्जा-बर्गर पहुंचाना है. यह जल्दबाजी महानगर की तासीर है. मेरा शहर भोपाल भी इस तरफ चल पड़ा है. को खां..कहने वाले भी अब गुमनाम हो रहे हैं..हाय, हलो के चलन ने भोपालियों को मेट्रो सिटी का सिटीजन बना दिया है, लगभग रेंगते हुए भटसुअर सडक़ से बाहर हो गए हैं..तेज रफ्तार से दौड़ती महंगी बसों ने इन खाली हुए सडक़ों पर कब्जा जमा लिया है. हवाओं से बात करते ये मोटरों ने भोपाल की सुस्ती को हवा कर दिया है.
पच्चीस-तीस बरस पहले जब मैं भोपाल आया था. तब यह शहर दो हिस्सों में बंटा था. पुराना भोपाल और नया भोपाल. बैरागढ़ की पहचान भोपाल के उपनगर के तौर पर था तो सही, लेकिन उसे भी पुराने भोपाल का हिस्सा मान लिया जाता था. नए भोपाल के पास नम्बरों के मोहल्ले थे. मसलन, दो नम्बर स्टाप से शुरू होते हुए पांच, छह, साढ़े छह, सात, दस, ग्यारह और बारह नम्बर तक था. अब भोपाल पसर रहा है. एक समय था भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर जाने में ज्यादा से ज्यादा घंटे का वक्त लगता था, अब भोपाल के एक छोर से दूसरे छोर पहुंचने के लिए आपको लगभग आधा दिन का वक्त लग जाएगा. जयप्रकाश अस्पताल से बागमुगालिया जाना चाहें तो कम से कम दो घंटे का वक्त लगेगा. कई बार बढ़ती भीड़ के कारण यह समय और भी अधिक हो सकता है. ऐसा ही दूसरे और फैल गए इलाकों के लिए भी है.
मेट्रो सिटी की इस नयी सूरत ने मेरे भोपाल के मायने ही बदल दिए हैं. कभी अपने जर्दा, पर्दा और मर्दा के लिए मशहूर भोपाल की जरदोजी दुनिया में ख्यात थी लेकिन एंडरसन ने ऐसे घाव दिए कि अब भोपाल गैस त्रासदी के लिए अपनी साख रखता है. तीस बरस पहले रिसी गैस से जो घाव मिले, वह आज भी रिस रहे हैं और जाने आगे कब तक रिसता रहेगा, कोई कह नहीं सकता. दुनिया भर से लोग मरहम लगाने के नाम पर आते हैं और जख्म कुरेद कर चले जाते हैं. यह हकीकत है, इससे आप इंकार नहीं कर सकते. इंकार तो इस बात से भी आप नहीं कर सकते कि इस गैस ने जिनके घर उजाड़े, वे तो दुबारा बस नहीं पाये लेकिन इस उजड़े हुए घरों की मिट्टी ने कई नए इमारतों की बुनियाद डाल दी. इस सच से उस दौर के आफिसर इत्तेफाक रखते हैं और बड़े मजे में फरमाते हैं-चलो, कुछ बातें करते हैं बनारस की. भूल जाइए उस गैस त्रासदी को. इस बयान से भी मेरा शहर तपता नहीं है. उसे खबर है कि जख्म देने वाले वही हैं तो उनसे दवा की क्या उम्मीद करें.
मेरा भोपाल महानगर बन रहा है तो उसकी तासीर भी महानगर की होनी चाहिए. कभी पर्दानशी शहर कहलाने वाले मेरे भोपाल में अब पर्दा के लिए कोई जगह नहीं बची है, ऐसा लगने लगा है. खासतौर पर नए शहर के युवाओं का मिजाज तो यही बयान करता है. झील के आसपास कहीं एक-दूसरे के आगोश में गिरफ्त युवक-युवतियां तो कहीं मर्यादा को तार तार करते होठों का सरेराह रसपान करते युवा. जिस्मानी भूख अब कमरे से बाहर निकल कर सडक़ों पर दिख रही है. कुछ कहना बेकार और बेमतलब होगा क्योंकि ये नए मिजाज का शहर है. इस जवानी को और ताप देने के लिए कुछ और करने की जरूरत होती है. नशा न हो तो नशेमन की बात भी अधूरी रह जाती है. मेरे भोपाल में शराब का चलन नया नहीं है लेकिन इन दिनों नई रीत चल पड़ी है..हैरान हूं इस बात से कि देखते ही देखते शराबों की दुकानों की तादाद एकदम से बढ़ गई. हैरानी तो इस बात की है कि जिन्हें बेचने के लिए मुकम्मल ठिकाना नहीं मिला तो टेंट लगाकर अपना ठिकाना तय कर लिया..किसी ने चार पहिया गाड़ी को ही इसका पता बता दिया..जिस्म की नुमाईश और शराब के नए-नए ठिकाने.. और क्या चाहिए एक मेट्रोसिटी को..
अदब के मेरे शहर भोपाल में अभी रौनक बाकी है..झीलों का जिक्र होता है तो मेरे भोपाल का नाम छूटता नहीं और हरियाली की बात आती है तो मेरा भोपाल किसी से कमतर नहीं..विकास के इस दौड़ में भी मेरे भोपाल की हरियाली ने भी दम तोड़ा है लेकिन मरा नहीं है..लोगों में अपने शहर को लेकर जज्बा कायम है. बड़ी झील की सफाई का मसला सामने आया तो क्या अमीर और क्या गरीब..सब जुट गए थे श्रमदान के लिए.. देखते ही देखते बड़ी झील की तस्वीर बदल डाली..गाद ने झील को सिमटने के लिए मजबूर किया था तो भोपालियों के जज्बे ने गाद को बाहर का रास्ता दिखा दिया..लहरों से खेलना हो तो भोपाल की बड़ी झील में जरूर आएं..हर गम..हर दर्द..यकीनन आप भूल जाएंगे..मीठी यादें साथ लेकर जाएंगे..मेरा भोपाल बदल रहा है..लेकिन उम्मीद बदली नहीं है..आज भी बदलाव के इस दौर में भोपाली बटुआ से खूबसूरत कोई तोहफा नहीं होता है..इस खूबसूरत शहर को भले ही हम नए मिजाज के शहर के तौर पर देखने की कोशिश करें लेकिन देखना होगा आपको उसी झीरी से जहां कभी भोपाल था और हमेशा रहेगा..
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