मनोज कुमार
सुबह सुबह फोन की घंटी घनघना उठी... मन में कुछ खयाल आया... स्वाभाविक था कि यह खयाल अच्छा तो होगा नहीं... कुछ अनमने मन से फोन उठाया तो उधर से संजय द्विवेदी की आवाज आयी... लगा कि रोज राम-राम करने फोन करते हैं, सो किया होगा लेकिन यह क्या.. अगले पल उसने पूछा कि क्या आपको पता है.. महेन्द्र गगन नहीं रहे... एकाएक मुंह से निकल गया क्या बकवास कर रहे हो... दरअसल, मन ऐसी किसी खबर के लिए तैयार ही नहीं था.. फिर खुद को सम्हालते हुए कहा कि पता करता हूं, ऐसा होना तो नहीं चाहिए.. एक-दो दिन पहले ही मित्र शिवअनुराग पटेरिया के जाने की खबर से मन उबरा ही नहीं था कि यह दूसरा दुख.. भरे मन से अग्रज अरूण पटेल जी को फोन किया.. महेन्द्र भाई रिश्ते में उनके समधि थे.. उन्हें भी इस बात की कोई खबर नहीं थी.. वे चौंके और थोड़ी देर बाद उनका जवाब आया.. हां, मनोज जी, खबर सही है.. मुझे तकलीफ ना हो.. इसलिये मुझे नहीं बताया गया था...
महेन्द्र गगन के जाने का अर्थ था समाज के एक ऐसे गगन का रिक्तता से भर जाना जो पत्रकारिता, साहित्य और सेवा से परिपूर्ण हो.. महेन्द्र भाई मुझसे उम्र में कुछेक साल बड़े थे.. लेकिन वर्षों की मुलाकात में उम्र कभी बाधा नहीं बनी.. जब भी मिले, मोहब्बत से मिले. दरअसल, उनके और मेरे बीच का रिश्ता मेरी पत्रिका ‘समागम’ बनी रही. इस दुखद हादसे के शायद एकाध पखवाड़े पहले मैं, महेन्द्र भाई और पटेल साहब कुछ घंटे साथ रहे. तय भी हुआ था कि इसी दिन दोपहर को फिर मुलाकात होगी.. मेरी व्यवस्ता और थोड़ी अलाली के चलते कल मिल लेंगे के साथ मिलने की आस अधूरी रह गयी. खैर, जो लोग महेन्द्र भाई को जानते हैं, वे लोग यह भी जानते हैं कि एक संवेदनशील आदमी का जाना क्या होता है.. उनकी पहचान पहले पहल प्रिंटरी से थी तो उनके पाक्षिक अखबार पहले पहले से भी थी. वे एक अच्छे लेखक और कवि थे... जिस कोरोना के कू्रर हाथों से महेन्द्र भाई को हमसे अलग कर दिया, उसी कोरोना से उपजी स्थितियों पर उन्होंने कविता लिखी थी...
रायपुर से भोपाल आने के बाद जिनकी सोहबत मुझे मिली, उनमें महेन्द्र भाई एक थे. वे ऐसे व्यक्ति थे जो सामने वाले का पूरा सम्मान करते थे. वे राग-द्वेष से विलग थे. हमेशा संजीदा रहने वाले महेन्द्र भाई हमेशा हल्के से मुस्करा देते थे. कभी चिंता में डूबे उनको देखा नहीं. हमेशा अपने काम में लगे रहते थे. आखिरी दफा जब हम मिले तो कोरोना से साथियों के देहांत से दुखी थे. मुझे क्या पता था कि महेन्द्र भाई भी इसी बीमारी के शिकार हो जाएंगे. उनके देहांत के पहले पटेल साहब से बात हुई थी. उन दिनों बिस्तर और ऑक्सीजन को लेकर मारामारी चल रही थी. अचानक तबियत बिगडऩे के कारण उन्हें एडमिट करना जरूरी हो गया था. आनन-फानन में पटेल साहब अपने संबंधों और संपर्कों से उन्हें एडमिट करा सके थे. दो-एक दिन बाद जब मैंने महेन्द्र भाई की तबियत का हाल पूछा तो पटेल साहब ने कहा कि अब ठीक हैं. जल्द ही घर वापस आ जाएंगे. यह वह दौर था जब हस्पताल से किसी के घर आने की खबर बहुत बड़ी बन चली थी. पटेल साहब से यह सुनकर मन को दिलासा दिलाया कि ईश्वर का शुक्र है. ईश्वर निर्मम हो चला था. शायद उसके पास भी अच्छे कवि और लेखक की कमी हो गई होगी. सो महेन्द्र भाई को वहां रचने-गढऩे के लिए बुला लिया..
महेन्द्र भाई के लिए जब यह लिख रहा हंू तो सहज ही स्मरण हो आता है कि आज वे होते तो वे अपना 68वां जन्मदिन आने वाले माह अक्टूबर की 4 तारीख को मना रहे होते. लेकिन नियति को यह कहां मंजूर था. 4 अक्टूबर, 1953 को उज्जैन की भाटी दम्पत्ति के घर रौशन हुए महेन्द्र ने अपने कुल का नाम इतना ऊंचा किया कि आज उनके नहीं रहने पर आंखें नम हैं. एक खालीपन सा महसूस हो रहा है और हम चाहने वालों की चलती तो कैलेंडर के पन्ने से 21 अप्रेल की उस मनहूस तारीख को हमेशा हमेशा के लिए दफा कर देते. साल तो अपनी रफ्तार से गुजर जाएगा लेकिन कैलेंडर के पन्ने पर अप्रेल माह की 21 तारीख टीस देने के लिए हर साल हमारी आंखों के सामने होगी. परिवार में उनकी जीवनसंगिनी मीना भाभी किसको अपना दर्द बताये? बिसूरती मां को ढाढस देने के लिए बेटों की भूमिका में दामाद आनंद और पलाश साये की तरह उनके साथ हैं. बेटियां यामिनी और पूर्वा हकीकत से वाकिफ हैं. खुद के साथ मां को सम्हाल कर पिता की लाडली बेटियां अचानक सयानी हो गई हैं. महेन्द्र भाई के पीछे उनके दो छोटे भाई मोहन और पुष्कर उनकी छोड़ी विरासत साहित्य, संस्कृति और प्रेम को सम्हालेंगे.
रघु ठाकुर उन्हें याद करते हुए अपनी आंखें भीगो लेते हैं तो लाजपत आहूजा उनके साथ बिताये पलों को याद करते हैं. हर गतिविधियों में साथ रहने वाले संतोष चौबे के लिए तो यह कभी ना भर पाने वाला नुकसान है तो साहित्य के साथी मुकेश वर्मा की आंखें भी सजल है. पटेल साहब के लिए यह दुख तो ऐसा है जैसे किसी ने अचानक उनकी आंखों के सामने अंधेरा कर दिया हो. यारों के यार भाई महेन्द्र की यादें ‘मिट्टी जो कम पड़ गई’ और ‘तुमने छुआ’ के पन्नों पर हमेशा हमेशा के लिए दर्ज है. यादें तो उन सम्मान पत्र पर भी हैं जो कभी उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक अववदान के लिए वागीश्वरी सम्मान, राजबहादुर पाठक स्मृति सम्मान, शब्दशिल्पी सम्मान, विनय दुबे स्मृति सम्मान के साथ रामेश्वर गुरु पुरस्कार हैं. महेन्द्र भाई जैसे कोई जाता है क्या? लेकिन क्या करें. सबकुछ हमारे हिसाब से तय नहीं होता है. शायद इसी को जीवन कहते हैं.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें