प्रेस दिवस पर विशेष
श्रमजीवी पत्रकार से मीडिया कर्मी का सफर
मनोज कुमार
स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता
मई माह का पहला दिन श्रमजीवियों के नाम से गुजर गया। इस दिन को हम श्रमिक दिवस के नाम से जानते हैं। कभी पत्रकार भी श्रमजीवी कहलाया करते थे और आज यह तखल्लुस केवल कस्बाई पत्रकारों तक सिमट कर रह गया है। अब हम श्रमजीवी नहीं कहलाते हैं, अब हम मीडिया कर्मी हैं बिलकुल वैसे ही जेसे सरकारों ने शिक्षकों को शिक्षाकर्मी बना दिया है। खुद का दिल बहलाने के लिये यह खयाल अच्छा हो सकता है कि पदनाम बदलने से काम पर भला क्या फर्क पड़ता है लेकिन मेरा मानना है कि पदनाम से ही काम पर फर्क पड़ता है। श्रमजीवी कहलाने का अर्थ वे लोग बखूबी जानते हैं, जो आज भी श्रमजीवी बने हुए हैं किन्तु जो लोग मीडिया कर्मी बन गये हैं उन्हें एक श्रमजीवी होने का सुख भला कैसे मिल सकता है। एक श्रमजीवी और एक कर्मचारी के काम में ही नहीं, व्यवहार में भी अंतर होता है। एक कर्मचारी का लक्ष्य और उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ एक निश्चित कार्य को पूर्ण कर अधिकाधिक पैसा कमाना होता है किन्तु एक श्रमजीवी का अर्थ बहुत विस्तार लिये हुए है। उसका उद्देश्य और लक्ष्य पैसा कमाना नहीं होता है। शायद यही कारण है कि ऐसे श्रमजीवी पत्रकार मुफलिसी में जीते हैं और मुफलिसी में ही मर जाते हैं। यही पत्रकार मिशनरी भाव से कार्य करते हैं न कि कर्मचारी के भाव से। आज तीन मई है और मुझे लगता है कि यह एक ऐसा अवसर है जहां इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत की जानी चाहिए। १९८१-८२ में जब मेरी पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था तब मुझे पहली सेलरी एक सौ अस्सी रूपये मिली थी। इसे सेलरी नहीं माना जाना चाहिए बल्कि वजीफा कहना चाहिए क्योंकि यह मेरे प्रशिक्षण की शुरूआत थी। यह वह दौर था जब पत्रकारिता में मीडिया कर्मी शब्द आया ही नहीं था। एक-दूसरे को लोग कामरेड कह कर बुलाते थे। यह एक सम्मानजनक शब्द होने के साथ साथ यह भाव बताता था कि ये पत्रकार होने के साथ मुफलिस भी हैं। मैंने उस दौर की पत्रकारिता भी देखी है जब वेतन का तो महीनों पता नहीं होता था लेकिन काम मे कभी कमी नहीं आयी। तेवर ऐसे कि पढ़ने वाले उस खबर में डूब जाएं। कभी रोने लगें तो कभी गुस्से से उनके होंठ भींच आये। ऐसा भी नहीं है कि प्रबंधन के खिलाफ श्रमजीवियों में गुस्सा नहीं फूटा। कई बार फूटा लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा गया। समाज में इन पत्रकारों को विशिष्ट सम्मान मिलता था। कोई डरता नहीं था बल्कि दिल से इज्जत मिलती थी। मुझे लगता है कि आज कहीं कुछ कमी आयी है तो इसके लिये अपने दायित्वों के प्रति समर्पण की भावना की कमी भी एक कारण है। यह कमी सुनियोजित ढंग से पैदा की गई है यह समझा कर यह बताकर कि आप मीडिया कर्मी है और एक कर्मी में दायित्व के प्रति समर्पण कम दिखे तो हेरानी नहीं करना चाहिए क्योंकि कर्मचारी में असंतोष स्वाभाविक है। किसी भी शासकीय अथवा सार्वजनिक संस्थानों में नौकरी करने वालों की तनख्वाह अच्छी खासी होती है बनस्पित एक पत्रकार की किन्तु थोड़े अंतराल बाद उन्हें महसूस होने लगता है कि उनकी सेलरी कम है और वे आंदोलन पर उतर आते हैं। लगभग यही भाव पत्रकार से मीडिया कर्मी बन गये साथियों में आ रही है।संभवत: बात वर्ष १९९६ की है। इस साल मुझे नवभारत समाचार पत्र समूह ने समाचार संपादक के लिये बुलाया था। इस पद हेतु चयन करने के बाद मुझसे मेरी सेलरी पूछी गयी। यह मेरे लिये एक नये किस्म का अनुभव था। अब तक देशबन्धु समाचार पत्र से जुड़ा हुआ था और सेलरी वही तय किया करते थे। सो मैंने नवभारत प्रबंधन से कहा कि जो आप उचित समझें। बहुत जोर देने के बाद कहा कि एक बच्ची, एक पत्नी और किराये का मकान के हिसाब से आप तय कर लें। बहरहाल, उन दिनों आठ हजार रूपये में मामला तय हुआ। आज जब दो हजार दस में पलट कर देखता हूं तो हैरत में रह जाता हूं कि पत्रकारिता में आने वाले पत्रकार पहले वेतन की, सुविधा की बातें करते हैं। सब कुछ गणित लगाकर। यह गणित संभवत: एक श्रमजीवी पत्रकार को नहीं आता था और न कभी आएगा। पत्रकारिता में आने का ध्येय रूपये कमाना नहीं है बल्कि सुख कमाना है समाज को सुखी देखकर। अपनी लिखी खबर से निकम्मों के खिलाफ, भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही होते देख कर। सुख मिलता है तब जब एक गरीब की आंखों से आंसू पोंछ दिये जायें। एक गरीब की बेटी की शादी हो जाए आदि इत्यादि। आज यह भाव खत्म हो रहा है तो पत्रकार से मीडिया कर्मी बना दिये गये साथियों कारण नहीं बल्कि व्यवस्था बना दी गई कि उन्हें उन लोगों पर खबर लिखनी है जो उनके अखबार खरीद सकें, टेलीविजन की कीमत चुका सकें, उन लोगों पर श्रम और साधन खर्च नहीं करना है जो खरीदने की ताकत नहीं रखते हैं। इसे ही पत्रकारिता का व्यवसायिकरण कहते हैं।
पत्रकारिता में विश्वसनीयता का जो संकट उपजा है, उसके पीछे भी यही कारण है। विश्वसनीयता का सवाल बार बार इसलिये भी उठाया जाता रहा है क्योंकि पत्रकारिता ने अपने बुनियादी काम को छोड़ दिया। एक करोड़पति किस तरह खाना खाता है, अथवा उसके कुत्ते किस नस्ल के हैं अथवा वह किस गाड़ी में घूमता है, यह खबर बन रही है लेकिन दो पांच सौ झोपड़ियों में रहने वाले बेघर हो रहे हैं, यह खबर नहीं है। खबर के व्यवसायिकरण को इसी संदर्भ में देखा जाना उचित होगा। यहां अफसोस करने लायक बात यही है कि एक व्यवसायी इस बात के लिये सचेत रहता है कि उसका उत्पाद श्रेष्ठ हो ताकि उपभोक्ता में उसकी विश्वसनीयता बनी रहे किन्तु पत्रकारिता अपने उत्पाद अर्थात खबरों के प्रति सजग नहीं दिख रहा है और यही कारण है कि बाजार में उसकी विश्वसनीयता गिर रही है।
इस स्थिति के लिये बहुत हद तक मैं मीडिया शिक्षा को भी जवाबदार मानता हूं। मीडिया शिक्षा एक अलग किस्म की पढ़ाई है और इसे किसी डिग्री डिप्लोमा कोर्स की तरह नहीं पढ़ाया जा सकता है और न ही पढ़ाकर पत्रकार पैदा किये जा सकते हैं। यहां पत्रकारों को मांजा जा सकता है और टेक्नालॉजी की शिक्षा दी जा सकती है। किन्तु जो लोग मीडिया शिक्षा देने में लगे हैं, उनके पास जमीनी अनुभव या तो है नहीं और है तो इतना कम की उन्हें ही अभी सीखने की जरूरत है। किताबों का अभाव है और जो किताबें है वे विदेशों में पढ़ाई जाने वाली अंग्रेजी की किताबे। भारत की स्थिति और परिस्थिति के विपरीत। ऐसे में नवागत पीढ़ी पत्रकार बनने के बजाय मीडिया कर्मी बन रही है तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। बार बार मीडिया की विश्वसनीयता, उसके व्यवसायिकरण, पेड न्यूज आदि पर विलाप करने के बजाय दिग्गजजन इस बात पर विचार करें कि मीडिया कर्मी पत्रकार कैसे बनें और पत्रकारिता का दायित्व कैसे पूरा किया जा सके, तो शायद हम आने वाले समय को जवाब दे सकेंगे। मुझे इंतजार रहेगा कि जब कोई अपने आपको मीडिया कर्मी कहलाने से परहेज करने लगेगा और पत्रकार कहला कर अपने स्वाभिमान के साथ अपना दायित्व पूरा कर सकेगा।
श्रमजीवी पत्रकार से मीडिया कर्मी का सफर
मनोज कुमार
स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता
मई माह का पहला दिन श्रमजीवियों के नाम से गुजर गया। इस दिन को हम श्रमिक दिवस के नाम से जानते हैं। कभी पत्रकार भी श्रमजीवी कहलाया करते थे और आज यह तखल्लुस केवल कस्बाई पत्रकारों तक सिमट कर रह गया है। अब हम श्रमजीवी नहीं कहलाते हैं, अब हम मीडिया कर्मी हैं बिलकुल वैसे ही जेसे सरकारों ने शिक्षकों को शिक्षाकर्मी बना दिया है। खुद का दिल बहलाने के लिये यह खयाल अच्छा हो सकता है कि पदनाम बदलने से काम पर भला क्या फर्क पड़ता है लेकिन मेरा मानना है कि पदनाम से ही काम पर फर्क पड़ता है। श्रमजीवी कहलाने का अर्थ वे लोग बखूबी जानते हैं, जो आज भी श्रमजीवी बने हुए हैं किन्तु जो लोग मीडिया कर्मी बन गये हैं उन्हें एक श्रमजीवी होने का सुख भला कैसे मिल सकता है। एक श्रमजीवी और एक कर्मचारी के काम में ही नहीं, व्यवहार में भी अंतर होता है। एक कर्मचारी का लक्ष्य और उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ एक निश्चित कार्य को पूर्ण कर अधिकाधिक पैसा कमाना होता है किन्तु एक श्रमजीवी का अर्थ बहुत विस्तार लिये हुए है। उसका उद्देश्य और लक्ष्य पैसा कमाना नहीं होता है। शायद यही कारण है कि ऐसे श्रमजीवी पत्रकार मुफलिसी में जीते हैं और मुफलिसी में ही मर जाते हैं। यही पत्रकार मिशनरी भाव से कार्य करते हैं न कि कर्मचारी के भाव से। आज तीन मई है और मुझे लगता है कि यह एक ऐसा अवसर है जहां इस मुद्दे पर खुलकर बातचीत की जानी चाहिए। १९८१-८२ में जब मेरी पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था तब मुझे पहली सेलरी एक सौ अस्सी रूपये मिली थी। इसे सेलरी नहीं माना जाना चाहिए बल्कि वजीफा कहना चाहिए क्योंकि यह मेरे प्रशिक्षण की शुरूआत थी। यह वह दौर था जब पत्रकारिता में मीडिया कर्मी शब्द आया ही नहीं था। एक-दूसरे को लोग कामरेड कह कर बुलाते थे। यह एक सम्मानजनक शब्द होने के साथ साथ यह भाव बताता था कि ये पत्रकार होने के साथ मुफलिस भी हैं। मैंने उस दौर की पत्रकारिता भी देखी है जब वेतन का तो महीनों पता नहीं होता था लेकिन काम मे कभी कमी नहीं आयी। तेवर ऐसे कि पढ़ने वाले उस खबर में डूब जाएं। कभी रोने लगें तो कभी गुस्से से उनके होंठ भींच आये। ऐसा भी नहीं है कि प्रबंधन के खिलाफ श्रमजीवियों में गुस्सा नहीं फूटा। कई बार फूटा लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुंह नहीं मोड़ा गया। समाज में इन पत्रकारों को विशिष्ट सम्मान मिलता था। कोई डरता नहीं था बल्कि दिल से इज्जत मिलती थी। मुझे लगता है कि आज कहीं कुछ कमी आयी है तो इसके लिये अपने दायित्वों के प्रति समर्पण की भावना की कमी भी एक कारण है। यह कमी सुनियोजित ढंग से पैदा की गई है यह समझा कर यह बताकर कि आप मीडिया कर्मी है और एक कर्मी में दायित्व के प्रति समर्पण कम दिखे तो हेरानी नहीं करना चाहिए क्योंकि कर्मचारी में असंतोष स्वाभाविक है। किसी भी शासकीय अथवा सार्वजनिक संस्थानों में नौकरी करने वालों की तनख्वाह अच्छी खासी होती है बनस्पित एक पत्रकार की किन्तु थोड़े अंतराल बाद उन्हें महसूस होने लगता है कि उनकी सेलरी कम है और वे आंदोलन पर उतर आते हैं। लगभग यही भाव पत्रकार से मीडिया कर्मी बन गये साथियों में आ रही है।संभवत: बात वर्ष १९९६ की है। इस साल मुझे नवभारत समाचार पत्र समूह ने समाचार संपादक के लिये बुलाया था। इस पद हेतु चयन करने के बाद मुझसे मेरी सेलरी पूछी गयी। यह मेरे लिये एक नये किस्म का अनुभव था। अब तक देशबन्धु समाचार पत्र से जुड़ा हुआ था और सेलरी वही तय किया करते थे। सो मैंने नवभारत प्रबंधन से कहा कि जो आप उचित समझें। बहुत जोर देने के बाद कहा कि एक बच्ची, एक पत्नी और किराये का मकान के हिसाब से आप तय कर लें। बहरहाल, उन दिनों आठ हजार रूपये में मामला तय हुआ। आज जब दो हजार दस में पलट कर देखता हूं तो हैरत में रह जाता हूं कि पत्रकारिता में आने वाले पत्रकार पहले वेतन की, सुविधा की बातें करते हैं। सब कुछ गणित लगाकर। यह गणित संभवत: एक श्रमजीवी पत्रकार को नहीं आता था और न कभी आएगा। पत्रकारिता में आने का ध्येय रूपये कमाना नहीं है बल्कि सुख कमाना है समाज को सुखी देखकर। अपनी लिखी खबर से निकम्मों के खिलाफ, भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्यवाही होते देख कर। सुख मिलता है तब जब एक गरीब की आंखों से आंसू पोंछ दिये जायें। एक गरीब की बेटी की शादी हो जाए आदि इत्यादि। आज यह भाव खत्म हो रहा है तो पत्रकार से मीडिया कर्मी बना दिये गये साथियों कारण नहीं बल्कि व्यवस्था बना दी गई कि उन्हें उन लोगों पर खबर लिखनी है जो उनके अखबार खरीद सकें, टेलीविजन की कीमत चुका सकें, उन लोगों पर श्रम और साधन खर्च नहीं करना है जो खरीदने की ताकत नहीं रखते हैं। इसे ही पत्रकारिता का व्यवसायिकरण कहते हैं।
पत्रकारिता में विश्वसनीयता का जो संकट उपजा है, उसके पीछे भी यही कारण है। विश्वसनीयता का सवाल बार बार इसलिये भी उठाया जाता रहा है क्योंकि पत्रकारिता ने अपने बुनियादी काम को छोड़ दिया। एक करोड़पति किस तरह खाना खाता है, अथवा उसके कुत्ते किस नस्ल के हैं अथवा वह किस गाड़ी में घूमता है, यह खबर बन रही है लेकिन दो पांच सौ झोपड़ियों में रहने वाले बेघर हो रहे हैं, यह खबर नहीं है। खबर के व्यवसायिकरण को इसी संदर्भ में देखा जाना उचित होगा। यहां अफसोस करने लायक बात यही है कि एक व्यवसायी इस बात के लिये सचेत रहता है कि उसका उत्पाद श्रेष्ठ हो ताकि उपभोक्ता में उसकी विश्वसनीयता बनी रहे किन्तु पत्रकारिता अपने उत्पाद अर्थात खबरों के प्रति सजग नहीं दिख रहा है और यही कारण है कि बाजार में उसकी विश्वसनीयता गिर रही है।
इस स्थिति के लिये बहुत हद तक मैं मीडिया शिक्षा को भी जवाबदार मानता हूं। मीडिया शिक्षा एक अलग किस्म की पढ़ाई है और इसे किसी डिग्री डिप्लोमा कोर्स की तरह नहीं पढ़ाया जा सकता है और न ही पढ़ाकर पत्रकार पैदा किये जा सकते हैं। यहां पत्रकारों को मांजा जा सकता है और टेक्नालॉजी की शिक्षा दी जा सकती है। किन्तु जो लोग मीडिया शिक्षा देने में लगे हैं, उनके पास जमीनी अनुभव या तो है नहीं और है तो इतना कम की उन्हें ही अभी सीखने की जरूरत है। किताबों का अभाव है और जो किताबें है वे विदेशों में पढ़ाई जाने वाली अंग्रेजी की किताबे। भारत की स्थिति और परिस्थिति के विपरीत। ऐसे में नवागत पीढ़ी पत्रकार बनने के बजाय मीडिया कर्मी बन रही है तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। बार बार मीडिया की विश्वसनीयता, उसके व्यवसायिकरण, पेड न्यूज आदि पर विलाप करने के बजाय दिग्गजजन इस बात पर विचार करें कि मीडिया कर्मी पत्रकार कैसे बनें और पत्रकारिता का दायित्व कैसे पूरा किया जा सके, तो शायद हम आने वाले समय को जवाब दे सकेंगे। मुझे इंतजार रहेगा कि जब कोई अपने आपको मीडिया कर्मी कहलाने से परहेज करने लगेगा और पत्रकार कहला कर अपने स्वाभिमान के साथ अपना दायित्व पूरा कर सकेगा।
पत्रकारों की दयनीय स्थिति और भ्रष्टाचारियों की सुखद स्थिति को देखकर, इस लोकतंत्र के भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है / अच्छी विचारणीय प्रस्तुती /
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रस्तुती |
जवाब देंहटाएंBAHUT KHUB
जवाब देंहटाएंBADHAI AAP KO IS KE LIYE