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अंग्रेजी के मोहपाश से आखिर कब मुक्त होंगे?


-अनामिका
एक के बाद एक वर्ष गुजरते जा रहे हैं और देखते ही देखते लगभग 70 वर्ष गुजर गए लेकिन भारतीय समाज अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाया है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने की जितनी पुरजोर कोशिश की जा रही है, अंग्रेजी का वर्चस्व उतना ही बढ़ रहा है। कभी अंग्रेजों पर फ्रेंच ने राज किया था और अंग्रेजी भाषा को दरकिनार कर दिया था लेकिन फ्रेंच शासन से मुक्त होने के बाद अंग्रेजी को पूरी ताकत के साथ वापस उसका सम्मान दिलाया गया। किन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिन अंग्रेजों के हम अनुगामी बने हुए हैं, उनसे यह नहीं सीख पाये कि कैसे हम अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी को उसका सम्मानजनक स्थान दिलायें। यह तथ्य सर्वविदित है कि हिन्दी दुनिया में सर्वाधिक बोली जाती है, पढ़ाई जा रही है लेकिन भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व इन उपलब्धियों पर पानी फेर देता है। इस बार 14 सितम्बर को फिर एक दिन, एक सप्ताह तथा एक माह का हिन्दी के नाम होगा और इसके बाद हम वापस अंग्रेजी की कक्षा में चले जाएंगे।
हिन्दी भाषा को हमारी सांस्कृतिक चेतना, आध्यात्मिक चेतना, हमारी भारतीयता, हमारी सभ्यता, हमारा साहित्य, हमारी कलाएं, सभी मिलकर समृद्ध और बहुआयामी बनाती हैं। आधुनिक होती मानव सभ्यता की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिस तकनीक का, जिस शब्द भंडार का, जिस गहन अनुसंधान करने वाली बहुआयामी जीवंत, सर्वमान्य सभी माध्यमों में सहज ढंग से स्वयं को ढालने वाली वैज्ञानिक, संवेदनशील और सशक्त भाषा की आज हमें जरूरत है, वह हिन्दी के अलावा और कौन सी भाषा हो सकती है? हिन्दी की सहज सम्प्रेषणीयता, विविधता और सार्वभौमिकता को लेकर कोई संदेह या सवाल पैदा हो सकता है? ज्ञान की तमाम धाराएं, उप-धाराएं, अंतर्धाराएं, तकनीक तथा अन्य अनुशासनों की आवश्यकताओं को पूरा करने की आत्माशक्ति और विराटता हिन्दी के अलावा और किस भाषा में हम पाते हैं? हिन्दी का वैश्विक स्वरूप जिस तेजी के साथ उभरा है, स्थापित हुआ है, उसमें बाजार की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। भू-मंडलीकरण ने भी हिन्दी को प्रसारित तथा प्रचारित किया है। 
हिन्दी जब आज दुनिया में अपना डंका बजा रही है तो फिर उसके अपने ही घर में उसका अपमान क्यों? हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं हमारी अस्मिता हैं तथा अंग्रेजी हमारी कुंठा, लेकिन त्रासदी यह है कि हम कुंठा-जीवी हो गए हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्र के समुचित विकास के लिए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को प्रभावशाली बनाया जाए। सरकारी कामकाज में इनका प्रयोग करके, इन्हें नौकरी का माध्यम बनाकर प्रभावशाली बनाया जा सकता है, लेकिन अब तक यह काम दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में संभव नहीं हो पाया है। हर तरह के संवैधानिक उपबंधों, नियमों और विनियमों के क्रियाशील होने के बावजूद हम हिन्दी को उसका अधिकार दिला पाने में नाकाम रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद तक भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं निर्वासन भोगने के लिए विवश हैं। 
फ्रांस और इंग्लैंड के बीच चले सौ वर्षों के लम्बे युद्ध के दौरान अंग्रेजों में फ्रेंच भाषा के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। 14वीं शताब्दी (1362) में पार्लियामेंट में ‘स्टेच्यूट ऑफ प्लीडिग’ अधिनियम अंग्रेजी के पक्ष में पारित हुआ।  भाषाई अस्मिता की रक्षा का जो काम अंग्रेजों ने 14वीं शताब्दी में अंग्रेजी के परिप्रेक्ष्य में कर दिखाया, हमें यह काम आज हिन्दी में करना होगा। राष्ट्रीय महत्व के इस कार्य को करने के लिए हमारे पास संबल के रूप में संवैधानिक उपबंध हैं। ये संवैधानिक उपबंध के अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक हैं। 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को भारत संघ की राज भाषा के रूप में स्वीकार किया गया तथा संविधान सभा के अध्यक्ष ने घोषणा की थी कि-‘राज भाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सकेगी। अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषा को स्थापित करने से हम निश्चित ही और भी एक-दूसरे के निकट आएंगे।’ संविधान के अनुच्छेद 344 के अनुसार 1955 गठित राजभाषा आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए 1957 में संसदीय समिति बनायी गई। तद्नुसार निर्णय किया गया कि अंग्रेजी का प्रयोग 26 जनवरी 1965 के बाद भी जारी रहना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 351 में व्यवस्था है कि ‘हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, यह दायित्व केन्द्र शासन का होगा।’
ऐसा नहीं है कि हिन्दी का साम्राज्य कुछ थोड़ा-सिमटा हुआ हो, उसका वर्चस्व ना हो और दुनिया में उसका फैलाव या विस्तार न हो। यह सोच कर हम गौरवान्वित हो उठते हैं कि हमारी फिल्मों और फिल्मी गीतों ने हिन्दी को अपार लोकप्रियता दी है। यह जानकर हम खुश हो उठते हैं कि दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई और सिखाई जाती है। यह जानकर हम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों, साहित्यकारों तथा कलाकारों ने हिन्दी को प्रतिष्ठित किया है। यह सोचकर भी हम अपनी पीठ थपथपा लेते हैं कि गाहे-बगाहे हमारे बड़े बड़े नेता विदेशी जमीन पर अपनी भाषा यानी हिन्दी में भाषण देकर इतिहास रच देते हैं। यह सोच कर भी हम गर्व महसूस कर लेेते हैं कि हिन्दी और हिन्दी की सांस्कृतिक परम्परा को विदेशी लोग सीखने की, अपनाने की कोशिश करते हैं। पर हमारी ये खुशी, ये गर्व की भावना तब चूर-चूर हो जाती है जब हम देखते हैं कि भारत के स्कूल तथा कॉलेजों में हिन्दी के प्रति न तो किसी प्रकार का सम्मान का भाव है और न ही सीखने, पढऩे और पढ़ाने की अभिरूचि। 
वास्तविकता हमेशा कड़ुवी होती है, कठोर होती है। इन सच्चाईयों से जूझना जरूरी है क्योंकि आज हम उन्हीं चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। चतुर-चालक विश्व बाजार हिन्दी को अपने साम्राज्य विस्तार में सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहा है इसलिए हिन्दी की जो असली पहचान है, अपनी गरिमा है, उसको आघात न पहुंचे, इसके लिए हमें चौकस रहना होगा। विदेशी बाजार हो या देशी बाजार, उन्हें हिन्दी भाषा के विकास और विस्तार से कोई बहुत वास्ता नहीं है बल्कि वे उस हिन्दी मानस के भारतीय को अपना टारगेट बनाते हैं जो उनके लिए महज उपभोक्ता की तरह है। शायद यही कारण है कि हिन्दी भाषा के लिए लगातार कोशिशों के बावजूद वह मंच नहीं मिल पाया है जिस पर हिन्दी भाषा का हक है। इसके उलट जब हम अंग्रेजी की तरफ देखते हैं तो विस्मय हो जाना सहज है जो विश्व भाषा न होते हुए भी विश्व मंच पर बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सुस्थापित है। अंग्रेजी की जानकारी और शिक्षण से परहेज नहीं किया जाना चाहिए लेकिन हिन्दी को बाजार की तरह उपयोग किया जाना अनुचित है। हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए हम सबको सचेत रहना होगा। 


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